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श्लोक 10.52.8  |
विहाय वित्तं प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत् ।
पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम् ॥ ८ ॥ |
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शब्दार्थ |
विहाय—छोड़ कर; वित्तम्—धन; प्रचुरम्—पर्याप्त; अभीतौ—वस्तुत: बिना डरे; भीरु—डरपोकों के समान; भीत-वत्—डरे जैसे; पद्भ्याम्—अपने पाँवों से; पद्म—कमलों की; पलाशाभ्याम्—पंखडिय़ों जैसे; चेलतु:—चले गये; बहु-योजनम्—कई योजन तक (एक योजन आठ मील से कुछ अधिक की दूरी है) ।. |
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अनुवाद |
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प्रचुर सम्पत्ति को छोड़ कर निर्भय किन्तु भय का स्वाँग करते हुए वे अपने कमलवत् चरणों से पैदल अनेक योजन चलते गये। |
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