श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 53: कृष्ण द्वारा रुक्मिणी का अपहरण  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में बतलाया गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण किस तरह विदर्भ की राजधानी कुण्डिन पहुँचे और बलशाली शत्रुओं की उपस्थिति में उन्होंने रुक्मिणी का अपहरण किया।...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह कुमारी वैदर्भी का गुप्त सन्देश सुनकर यदुनन्दन ने ब्राह्मण का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुसकाते हुए उससे इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 2:  भगवान् ने कहा : जिस तरह रुक्मिणी का मन मुझ पर लगा है उसी तरह मेरा मन उस पर लगा है। मैं रात में सो तक नहीं सकता। मैं जानता हूँ कि द्वेषवश रुक्मी ने हमारा विवाह रोक दिया है।
 
श्लोक 3:  वह अपने आपको एकमात्र मेरे प्रति समर्पित कर चुकी है और उसका सौन्दर्य निष्कलंक है। मैं उन अयोग्य राजाओं को युद्ध में उसी तरह मथ कर उसे यहाँ लाऊँगा जिस तरह काठ से प्रज्ज्वलित अग्नि उत्पन्न की जाती है।
 
श्लोक 4:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् मधुसूदन रुक्मिणी के विवाह की सही सही लग्न का समय भी समझ गये। अत: उन्होंने अपने सारथी से कहा, “हे दारुक, मेरा रथ तुरन्त तैयार करो।”
 
श्लोक 5:  दारुक भगवान् का रथ ले आया जिसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक घोड़े जुते थे। फिर वह अपने हाथ जोड़ कर भगवान् कृष्ण के सामने खड़ा हो गया।
 
श्लोक 6:  भगवान् शौरि अपने रथ में सवार हुए और फिर ब्राह्मण को चढ़ाया। तत्पश्चात् भगवान् के तेज घोड़े एक रात में ही उन्हें आनर्त जिले से विदर्भ ले गये।
 
श्लोक 7:  कुण्डिन का स्वामी राजा भीष्मक अपने पुत्र के स्नेह के वशीभूत होकर अपनी कन्या शिशुपाल को देने ही वाला था। राजा ने समस्त आवश्यक तैयारियाँ पूरी कर ली थीं।
 
श्लोक 8-9:  राजा ने मुख्य मार्गों, व्यापारिक सडक़ों तथा चौराहों को ठीक से साफ कराया और तब उन पर जल छिडक़वाया। उसने विजय तोरणों तथा खंभों पर रंगबिरंगी झंडियों से नगर को सजवाया। नगर के स्त्री-पुरुषों ने साफ-सुथरे वस्त्र पहने और अपने अपने शरीरों पर सुगन्धित चन्दन-लेप लगाया और बहुमूल्य हार, फूल की मालाएँ तथा रत्नजटित आभूषण धारण किये। उनके भव्य घर अगुरु की सुगन्ध से भर गये।
 
श्लोक 10:  हे राजन्, महाराज भीष्मक ने पितरों, देवताओं तथा ब्राह्मणों को भलीभाँति भोजन कराकर उनकी विधिवत पूजा की। तत्पश्चात् उसने दुलहन के मंगल के लिए परम्परागत मंत्रों का उच्चारण करवाया।
 
श्लोक 11:  दुलहन ने अपने दाँत साफ किये और फिर स्नान किया और इसके बाद उसने मांगलिक वैवाहिक हार धारण किया। तत्पश्चात् उसे उत्तम कोटि के नये वस्त्रों की जोड़ी पहनाई गई और अत्यन्त सुन्दर रत्नजटित गहनों से सजाया गया।
 
श्लोक 12:  उत्तमोत्तम ब्राह्मणजनों ने वधू की रक्षा के लिए ऋग्, साम तथा यजुर्वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया और अथर्ववेद में पटु पुरोहित ने नियन्ता ग्रहों को शान्त करने के लिए आहुतियाँ दीं।
 
श्लोक 13:  राजा ने विधि-विधानों के ज्ञान में दक्ष व अद्वितीय ब्राह्मणों को सोना, चाँदी, वस्त्र, गौवें तथा गुड़-मिश्रित तिलों की दक्षिणा दी।
 
श्लोक 14:  चेदि नरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र की समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए समस्त कृत्यों को सम्पन्न करने के लिए मंत्रोच्चार में पटु ब्राह्मणों को लगाया था।
 
श्लोक 15:  राजा दमघोष ने मद टपकाते हाथियों, लटकती सुनहरी साँकलों वाले रथों तथा असंख्य घुड़सवार और पैदल सैनिकों के साथ कुण्डिन की यात्रा की।
 
श्लोक 16:  विदर्भराज भीष्मक नगर से बाहर गये और राजा दमघोष से विशेष सत्कार के प्रतीकों के साथ मिले। फिर भीष्मक ने दमघोष को इस अवसर के लिए विशेष रूप से निर्मित आवास-ग्रह में ठहराया।
 
श्लोक 17:  शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र तथा विदूरथ जो शिशुपाल के समर्थक थे, वे सभी पौण्ड्रक तथा हजारों अन्य राजाओं के साथ आये।
 
श्लोक 18-19:  शिशुपाल को दुलहन दिलाने के लिए कृष्ण तथा बलराम से ईर्ष्या करने वाले राजाओं ने परस्पर यह निश्चय किया, “यह कृष्ण यदि बलराम तथा अन्य यदुओं के साथ दुलहन का अपहरण करने यहाँ आता है, तो हम सब मिलकर उससे युद्ध करेंगे।” अत: वे ईर्ष्यालु राजा अपनी सारी सेनाएँ तथा सारे सैन्य वाहन लेकर विवाह में गये।
 
श्लोक 20-21:  जब बलराम ने विपक्षी राजाओं की इन तैयारियों तथा कृष्ण द्वारा दुलहन का हरण करने के लिए अकेले ही प्रस्थान किये जाने के बारे में सुना तो उन्हें शंका होने लगी कि कहीं युद्ध न ठन जाय। अत: वे अपने भाई के स्नेह में निमग्न होकर अपनी विशाल सेना के साथ तेजी से कुण्डिन के लिए कूच कर गये। उनकी सेना में पैदल तथा हाथी, घोड़े और रथ पर सवार सैनिक थे।
 
श्लोक 22:  भीष्मक की सुप्रिया पुत्री कृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा उत्सुकतापूर्वक कर रही थी किन्तु जब उसने ब्राह्मण को वापस आए हुए नहीं देखा तो उसने इस प्रकार सोचा।
 
श्लोक 23:  [राजकुमारी रुक्मिणी ने सोचा] : हाय! रात बीत जाने पर मेरा विवाह होना है! मैं कितनी अभागिनी हूँ! कमल-नेत्र कृष्ण अभी भी नहीं आये। मैं नहीं जानती क्यों? यहाँ तक कि ब्राह्मण-दूत भी अभी तक नहीं लौटा।
 
श्लोक 24:  लगता है कि निर्दोष प्रभु ने यहाँ आने के लिए तैयार होते समय भी मुझमें कुछ घृणित बात देखी हो, जिससे वे मेरा पाणिग्रहण करने नहीं आये।
 
श्लोक 25:  मैं घोर अभागिनी हूँ क्योंकि न तो स्रष्टा विधाता मेरे अनुकूल है, न ही महेश्वर (शिवजी) अथवा शायद शिव-पत्नी देवी जो गौरी, रुद्राणी, गिरिजा तथा सती नाम से विख्यात हैं, मेरे विपरीत हो गई हैं।
 
श्लोक 26:  इस तरह से सोच रही तरुण बाला ने, जिसका मन कृष्ण ने चुरा लिया था, यह सोचकर कि अब भी समय है, अपने अश्रुपूरित नेत्र बन्द कर लिये।
 
श्लोक 27:  हे राजन्, जब वह दुलहन गोविन्द के आगमन की इस तरह प्रतीक्षा कर रही थी तो उसे लगा कि उसकी बाईं जाँघ, बाईं भुजा तथा बाईं आँख फडक़ रही हैं। यह इसका संकेत था कि कुछ प्रिय घटना घटने वाली है।
 
श्लोक 28:  तभी वह शुद्धतम विद्वान ब्राह्मण, कृष्ण के आदेशानुसार दिव्य राजकुमारी रुक्मिणी से भेंट करने राजमहल के अन्त:पुर में आया।
 
श्लोक 29:  ब्राह्मण के प्रसन्न मुख तथा शान्त चाल को देखकर ऐसे लक्षणों की दक्ष-व्याख्या करने वाली साध्वी रुक्मिणी ने शुद्ध मन्द-हास के साथ उससे पूछा।
 
श्लोक 30:  ब्राह्मण ने उनसे यदुनन्दन के आगमन की सूचना सुनाई और उनके साथ विवाह करने के भगवान् के वचन को कह सुनाया।
 
श्लोक 31:  राजकुमारी वैदर्भी कृष्ण का आगमन सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुई। पास में देने योग्य कोई उपयुक्त वस्तु न पाकर उसने ब्राह्मण को केवल नमस्कार किया।
 
श्लोक 32:  जब राजा ने सुना कि कृष्ण तथा बलराम आये हैं और वह उसकी पुत्री का विवाह देखने के लिए उत्सुक हैं, तो वह बाजे-गाजे के साथ उनका सत्कार करने के लिए पर्याप्त भेंटें लेकर आगे बढ़ा।
 
श्लोक 33:  उन्हें मधुपर्क, नये वस्त्र तथा अन्य वांछित भेंटें देकर उसने निर्धारित विधियों के अनुसार उनकी पूजा की।
 
श्लोक 34:  उदार राजा ने दोनों प्रभुओं के लिए तथा उनकी सेना एवं उनके संगियों के लिए भव्य आवासों की व्यवस्था की। इस तरह उसने उनको समुचित आतिथ्य प्रदान किया।
 
श्लोक 35:  इस तरह भीष्मक ने इस अवसर पर एकत्र हुए राजाओं को सारी वांछित वस्तुएँ प्रदान कीं और उनकी राजनैतिक शक्ति, आयु, शारीरिक बल तथा सम्पत्ति के अनुसार उनका सम्मान किया।
 
श्लोक 36:  जब विदर्भवासियों ने सुना कि भगवान् कृष्ण आए हैं, तो वे सब उनका दर्शन करने गये। अपनी आँखों की अंजुली से उन्होंने उनके कमलमुख के मधु का पान किया।
 
श्लोक 37:  [नगरवासियों ने कहा] एकमात्र रुक्मिणी उनकी पत्नी बनने के योग्य हैं और वे भी दोषरहित सौन्दर्यवान होने से राजकुमारी भैष्मी के लिए एकमात्र उपयुक्त पति हैं।
 
श्लोक 38:  हम लोगों ने जो भी पुण्य कर्म किये हों उनसे तीनों लोकों के स्रष्टा अच्युत प्रसन्न हों और वे वैदर्भी का पाणिग्रहण करने की अनुकम्पा दिखलायें।
 
श्लोक 39:  अपने उमड़ते प्रेम से बँध कर नगर के निवासी इस तरह की बातें कर रहे थे। तभी अंगरक्षकों से संरक्षित दुलहन अम्बिका के मन्दिर में जाने के लिए अंत:पुर से बाहर आई।
 
श्लोक 40-41:  रुक्मिणी मौन होकर देवी भवानी के चरणकमलों का दर्शन करने के लिए पैदल ही चल पड़ी। उनके साथ माताएँ तथा सखियाँ थीं और वे राजा के बहादुर सैनिकों द्वारा संरक्षित थीं जो अपने हथियार ऊपर उठाये हुए सन्नद्ध थे। रुक्मिणी केवल कृष्ण के चरणकमलों में अपने मन को ध्यानस्थ किये थीं। मार्ग-भर में मृदंग, शंख, पणव, तुरही तथा अन्य बाजे बजाये जा रहे थे।
 
श्लोक 42-43:  दुलहन के पीछे पीछे हजारों प्रमुख गणिकाएँ थीं जो नाना प्रकार की भेंटें लिये थीं। उनके साथ ब्राह्मणों की सजी-धजी पत्नियाँ गीत गा रही थीं और स्तुतियाँ कर रही थीं। वे माला, सुगन्ध, वस्त्र तथा आभूषण की भेंटें लिये थीं। साथ ही पेशेवर गवैये, संगीतज्ञ, सूत, मागध तथा वन्दीजन थे।
 
श्लोक 44:  देवी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणी ने सबसे पहले अपने कमल सदृश पैर तथा हाथ धोये और तब शुद्धि के लिए आचमन किया। इस तरह पवित्र एवं शान्त भाव से वे माता अम्बिका के समक्ष पधारीं।
 
श्लोक 45:  ब्राह्मणों की बड़ी बूढ़ी पत्नियाँ जो विधि-विधान में पटु थीं, रुक्मिणी को भवानी को नमस्कार कराने ले गईं जो अपने प्रियतम भगवान् भव (शिवजी) के साथ प्रकट हुईं।
 
श्लोक 46:  [राजकुमारी रुक्मिणी ने प्रार्थना की] हे शिव-पत्नी माता अम्बिका! मैं बारम्बार आपको तथा आपकी सन्तान को नमस्कार करती हूँ। कृपया यह वर दें कि भगवान् कृष्ण मेरे पति होएँ।
 
श्लोक 47-48:  रुक्मिणी ने जल, सुगन्धि, अन्न, धूप, वस्त्र, माला, हार, आभूषण तथा अन्य संस्तुत उपहारों से और दीपकों की पंक्तियों से देवी की पूजा की। उन्हीं के साथ साथ विवाहिता ब्राह्मणियों ने उन्हीं वस्तुओं से और नमकीन, पूए, पान-सुपारी, जनेऊ, फल तथा गन्ने के रस की भेंटें चढ़ा कर पूजा की।
 
श्लोक 49:  स्त्रियों ने दुलहन को प्रसाद दिया और फिर आशीर्वाद प्रदान किया। उसने भी उन्हें तथा देवी को नमस्कार किया और प्रसाद ग्रहण किया।
 
श्लोक 50:  तब राजकुमारी ने अपना मौन-व्रत तोड़ दिया और वह रत्नजटित अँगूठी से सुशोभित अपने हाथ से एक दासी को पकड़ कर अम्बिका मन्दिर के बाहर आई।
 
श्लोक 51-55:  रुक्मिणी भगवान् की उस मायाशक्ति की तरह मोहने वाली प्रतीत हो रही थीं जो बड़े बड़े धीर-गम्भीर पुरुषों को भी मोह लेती है। इस तरह राजागण उनके सुकुमार सौन्दर्य, उनकी सुघड़ कमर तथा कुण्डलों से सुशोभित मुख को निहारने लगे। उनके कूल्हे पर रत्नजटित करधनी शोभा पा रही थी, उनके स्तन अभी उभड़ ही रहे थे और उनकी आँखें उनकी लटकती केशराशि से चंचल लग रही थीं। वे मधुर हँसी से युक्त थीं और उनके चमेली की कली जैसे दाँतों से उनके बिम्ब जैसे लाल होंठों की चमक प्रतिबिम्बित हो रही थी। जब वे राजहंस जैसी चाल से चलने लगीं तो उनके रुनझुन करते पायलों के तेज से उनके चरणों की शोभा बढ़ गई। उन्हें देखकर एकत्रित वीरजन पूर्णतया मोहित हो गये। कामवासना से उनके हृदय विदीर्ण हो गये। दरअसल जब राजाओं ने उनकी विस्तृत मुसकान तथा लजीली चितवन देखी तो वे सम्मोहित हो गये, उन्होंने अपने अपने हथियार डाल दिये और वे मूर्छित होकर अपने अपने हाथियों, रथों तथा घोड़ों पर से जमीन पर गिर पड़े। जुलूस के बहाने रुक्मिणी ने अकेले कृष्ण के लिए ही अपना सौन्दर्य प्रदर्शित किया। उन्होंने भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए धीरे धीरे चलायमान कमलकोश रूपी दो चरणों को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने बाँए हाथ के नाखुनों से अपने मुख पर लटकते केश-गुच्छों को हटाया और अपने समक्ष खड़े राजाओं की ओर कनखियों से देखा। उसी समय उन्हें कृष्ण दिख गये। तभी अपने दुश्मनों के देखते देखते भगवान् ने राजकुमारी को पकड़ लिया जो उनके रथ पर चढऩे के लिए आतुर थी।
 
श्लोक 56:  राजकुमारी को उठाकर अपने गरुड़-ध्वज वाले रथ में बैठाकर माधव ने राजाओं के घेरे को पीछे धकेल दिया। वे बलराम को आगे करके धीरे से उसी तरह बाहर निकल गये जिस तरह सियारों के बीच से अपना शिकार उठाकर सिंह चला जाता है।
 
श्लोक 57:  भगवान् के जरासन्ध जैसे शत्रु राजा, इस अपमानजनक हार को सहन नहीं कर सके। वे चीख पड़े, “ओह! हमें धिक्कार है! यद्यपि हम बलशाली धनुर्धर हैं, किन्तु इन ग्वालों मात्र ने हमसे हमारा सम्मान उसी तरह छीन लिया है, जिस तरह छोटे छोटे पशु सिंहों का सम्मान हर लें।”
 
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