दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वर: ।
देवी वा विमुखी गौरी रुद्राणी गिरिजा सती ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
दुर्भगाया:—अभागी; न—नहीं; मे—मुझ पर; धाता—स्रष्टा (ब्रह्मा)विधाता; न—नहीं; अनुकूल:—अनुकूल; महा-ईश्वर:— शिवजी; देवी—देवी (उनकी प्रिया); वा—अथवा; विमुखी—विरुद्ध; गौरी—गौरी; रुद्राणी—रुद्र की पत्नी; गिरि-जा— हिमालय की पुत्री; सती—सती, जो पूर्वजन्म में दक्ष पुत्री थी और जिसने अपना शरीर-त्याग किया था ।.
अनुवाद
मैं घोर अभागिनी हूँ क्योंकि न तो स्रष्टा विधाता मेरे अनुकूल है, न ही महेश्वर (शिवजी) अथवा शायद शिव-पत्नी देवी जो गौरी, रुद्राणी, गिरिजा तथा सती नाम से विख्यात हैं, मेरे विपरीत हो गई हैं।
तात्पर्य
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती बतलाते हैं कि हो सकता है रुक्मिणी ने सोचा हो, “यदि कृष्ण आना भी चाह रहे हों तो सम्भवत: रास्ते में स्रष्टा ब्रह्मा ने रोक लिया हो क्योंकि वे मेरे अनुकूल नहीं हैं। लेकिन वे प्रतिकूल क्यों होने लगे? शायद ये महेश्वर शिवजी हों जिनकी मैंने कुछ अवसरों पर ठीक से पूजा नहीं की जिससे वे क्रुद्ध हो गए हों। लेकिन वे तो महेश्वर हैं—महान् नियंता—अत: वे मुझ जैसी क्षुद्र और बेसमझ लडक़ी से क्यों क्रुद्ध होने लगे? शायद यह शिव-पत्नी गौरीदेवी हैं, जो मुझ पर अप्रसन्न हैं यद्यपि मैं नित्य ही उनकी पूजा करती रही हूँ। हाय! मैंने उनका किस तरह अपमान किया है कि वे मुझसे रूठ गई हैं? किन्तु वे ठहरी रुद्राणी जिसका अर्थ है ‘हरएक को रुलाने वाली।’ अत: शायद वे और शिवजी मुझे रुलाना चाहते हैं। किन्तु यह देखते हुए कि मैं कितनी दुखियारी हूँ और अपना प्राण त्यागने वाली हूँ वे मुझ पर दयालु क्यों नहीं होते? इसका कारण यही हो सकता है कि वे गिरिजा हैं, गोद ली हुई पुत्री हैं, तो फिर वे दयालु क्यों होने लगीं? उन्होंने अपने सती अवतार में अपना शरीर छोड़ा था, अतएव वे शायद यही चाहती हैं कि मैं भी अपना शरीर छोड़ दूँ।”
इस तरह आचार्य ने काव्य-संवेदनशीलता की अनुभूति के साथ इस श्लोक में विविध नामों की व्याख्या की है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥