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श्लोक |
एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा ।
न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले ॥ २६ ॥ |
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शब्दार्थ |
एवम्—इस प्रकार; चिन्तयती—सोचती हुई; बाला—युवती; गोविन्द—कृष्ण द्वारा; हृत—चुराया हुआ; मानसा—मन से; न्यमीलयत—बन्द कर लिया; काल—समय; ज्ञा—जानने वाली; नेत्रे—अपनी आँखें; च—तथा; अश्रु-कला—आँसू से; आकुले—डबडबाये ।. |
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अनुवाद |
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इस तरह से सोच रही तरुण बाला ने, जिसका मन कृष्ण ने चुरा लिया था, यह सोचकर कि अब भी समय है, अपने अश्रुपूरित नेत्र बन्द कर लिये। |
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तात्पर्य |
श्रील श्रीधर स्वामी ने कालज्ञा शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है : “[रुक्मिणी ने |
सोचा] : यह गोविन्द के आने का सही समय भी नहीं है।” और इस तरह उसे कुछ ढाढ़स बँधा। |
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