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श्लोक |
किञ्चित्सुचरितं यन्नस्तेन
तुष्टस्त्रिलोककृत् ।
अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्या: पाणिमच्युत: ॥
३८ ॥ |
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शब्दार्थ |
किञ्चित्—तनिक भी; सु-चरितम्—पुण्य कर्म; यत्—जो भी; न:—हमारे; तेन—उसी से; तुष्ट:—संतुष्ट; त्रि-लोक—तीनों लोक का; कृत्—स्रष्टा, विधाता; अनुगृह्णातु—दया दिखलाये; गृह्णातु—जिससे ग्रहण करे; वैदर्भ्या:—रुक्मिणी का; पाणिम्— हाथ; अच्युत:—कृष्ण ।. |
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अनुवाद |
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हम लोगों ने जो भी पुण्य कर्म किये हों उनसे तीनों लोकों के स्रष्टा अच्युत प्रसन्न हों और वे वैदर्भी का पाणिग्रहण करने की अनुकम्पा दिखलायें। |
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तात्पर्य |
विदर्भ के भक्त नागरिकों ने प्रेमवश अपने समस्त संचित पुण्य राजकुमारी रुक्मिणी को |
अर्पित कर दिये। वे भगवान् कृष्ण के साथ उनका विवाह देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे। |
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