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अध्याय 57: सत्राजित की हत्या और मणि की वापसी
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह सत्राजित की हत्या के बाद भगवान् कृष्ण ने शतधन्वा का वध किया और अक्रूर द्वारा किस तरह स्यमन्तक मणि द्वारका लाई गई।
जब श्रीकृष्ण... |
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श्लोक 1: श्री बादरायणि ने कहा : यद्यपि जो कुछ घटित हुआ था भगवान् गोविन्द उससे पूर्णतया अवगत थे, फिर भी जब उन्होंने यह समाचार सुना कि पाण्डव तथा महारानी कुन्ती जल कर मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, तो वे कुलरीति पूरा करने के उद्देश्य से बलराम के साथ कुरुओं के राज्य में गये। |
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श्लोक 2: दोनों ही विभु भीष्म, कृप, विदुर, गान्धारी तथा द्रोण से मिले। उन्हीं के समान दुख प्रकट करते हुए वे बिलख उठे, “हाय! यह कितना कष्टप्रद है!” |
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श्लोक 3: इस अवसर का लाभ उठा कर, हे राजन्, अक्रूर तथा कृतवर्मा शतधन्वा के पास गये और उससे कहा, “क्यों न स्यमंतक मणि को हथिया लिया जाय?” |
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श्लोक 4: “सत्राजित ने वादा करके हमारी तिरस्कारपूर्वक अवहेलना करते हुए अपनी रत्न जैसी पुत्री हमें न देकर कृष्ण को दे दी। तो फिर सत्राजित अपने भाई के ही मार्ग का अनुगमन क्यों न करे?” |
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श्लोक 5: इस तरह उसका मन उनकी सलाह से प्रभावित हो गया और दुष्ट शतधन्वा ने लोभ में आकर सत्राजित को सोते हुए मार डाला। इस तरह पापी शतधन्वा ने अपनी आयु क्षीण कर ली। |
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श्लोक 6: जब सत्राजित के महल की स्त्रियाँ चीख रही थीं और असहाय की तरह रो रही थीं तब शतधन्वा ने वह मणि ले लिया और वहाँ से चलता बना जैसे कुछ पशुओं का वध करने के बाद कोई कसाई करता है। |
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श्लोक 7: जब सत्यभामा ने अपने मृत पिता को देखा तो वे शोक में डूब गईं। “मेरे पिता, मेरे पिता! हाय, मैं मारी गयी” विलाप करती हुई वे मूर्छित होकर गिर गईं। |
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श्लोक 8: रानी सत्यभामा अपने पिता के शव को तेल के एक विशाल कुंड में रख कर हस्तिनापुर गईं जहाँ उन्होंने अपने पिता की हत्या के बारे में बहुत ही शोकातुर होकर कृष्ण को बतलाया जो पहले से इस स्थिति को जान रहे थे। |
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श्लोक 9: हे राजन्, जब कृष्ण तथा बलराम ने यह समाचार सुना तो वे आह भर उठे, “हाय! यह तो हमारे लिए सबसे बड़ी दुर्घटना (विपत्ति) है!” इस तरह मानव समाज की रीतियों का अनुकरण करते हुए वे शोक करने लगे और उनकी आँखें आँसुओं से डबडबा आईं। |
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श्लोक 10: भगवान् अपनी पत्नी तथा बड़े भाई के साथ अपनी राजधानी लौट आये। द्वारका आकर उन्होंने शतधन्वा को मारने और उससे मणि छीन लेने की तैयारी की। |
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श्लोक 11: यह जान कर कि भगवान् कृष्ण उसे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं, शतधन्वा भयभीत हो उठा। वह अपने प्राण बचाने के लिए कृतवर्मा के पास गया और उससे सहायता माँगी किन्तु कृतवर्मा ने इस प्रकार उत्तर दिया। |
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श्लोक 12-13: [कृतवर्मा ने कहा] : मैं भगवान् कृष्ण तथा बलराम के विरुद्ध अपराध करने का दुस्साहस नहीं कर सकता। भला उन्हें कष्ट देने वाला अपने सौभाग्य की आशा कैसे कर सकता है? कंस तथा उसके सारे अनुयायियों ने उनसे शत्रुतावश अपनी सम्पत्ति तथा अपने प्राण गँवाये और उनसे सत्रह बार युद्ध करने के बाद जरासन्ध के पास एक भी रथ नहीं बचा। |
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श्लोक 14: अपनी याचना अस्वीकृत हो जाने पर शतधन्वा अक्रूर के पास गया और अपनी रक्षा के लिए उनसे अनुनय-विनय की। किन्तु अक्रूर ने भी उसी तरह उससे कहा : भला ऐसा कौन है, जो उन दोनों के बल को जानते हुए उन दोनों विभुओं का विरोध करेगा? |
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श्लोक 15: यह तो परमेश्वर ही हैं, जो अपनी लीला के रूप में इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। यहाँ तक कि विश्व स्रष्टागण भी उनके प्रयोजन को नहीं समझ पाते क्योंकि वे उनकी माया द्वारा मोहग्रस्त रहते हैं। |
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श्लोक 16: सात वर्षीय एक बालक के रूप में कृष्ण ने समूचा पर्वत उखाड़ लिया और आसानी से इसे ऊपर उठाये रखा जिस तरह एक बालक कुकुरमुत्ता उठा लेता है। |
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श्लोक 17: “मैं उन भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जिनका हर कार्य चकित करने वाला है। वे परमात्मा हैं, असीम स्रोत तथा समस्त जगत के स्थिर केन्द्र हैं।” |
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श्लोक 18: जब अक्रूर ने भी उसकी याचना अस्वीकार कर दी तो शतधन्वा ने उस अमूल्य मणि को अक्रूर के संरक्षण में रख दिया और एक घोड़े पर चढ़ कर भाग गया जो एक सौ योजन (आठ सौ मील) यात्रा कर सकता था। |
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श्लोक 19: हे राजन्, कृष्ण तथा बलराम, कृष्ण के रथ पर सवार हुए जिस पर गरुड़चिन्हित ध्वजा फहरा रहा था और जिसमें अत्यन्त तेज घोड़े जुते थे। वे अपने श्रेष्ठ (श्वसुर) के हत्यारे का पीछा करने लगे। |
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श्लोक 20: मिथिला के बाहर एक बगीचे में वह घोड़ा जिस पर शतधन्वा सवार था गिर गया। भयभीत होकर उसने घोड़ा वहीं छोड़ दिया और पैदल ही भागने लगा। कृष्ण क्रुद्ध होकर उसका पीछा कर रहे थे। |
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श्लोक 21: चूँकि शतधन्वा पैदल ही भागा था इसलिए भगवान् ने भी पैदल ही जाते हुए अपने तेज धार वाले चक्र से उसका सिर काट लिया। तब भगवान् ने स्यमन्तक मणि के लिए शतधन्वा के सभी वस्त्रों को छान मारा। |
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श्लोक 22: मणि न पाकर भगवान् कृष्ण अपने बड़े भाई के पास गये और कहने लगे, “हमने व्यर्थ ही शतधन्वा को मार डाला। उसके पास वह मणि नहीं है।” |
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श्लोक 23: इस पर बलराम ने उत्तर दिया, “निस्सन्देह, शतधन्वा ने मणि को किसी के संरक्षण में रख छोड़ा होगा। तुम नगरी में लौट जाओ और उस व्यक्ति को ढूँढ़ो।” |
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श्लोक 24: “मैं विदेह के राजा से भेंट करना चाहता हूँ क्योंकि वे मेरे अत्यन्त प्रिय हैं।” हे राजन्, यह कह कर, प्रिय यदुवंशी बलराम ने मिथिला नगरी में प्रवेश किया। |
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श्लोक 25: जब मिथिला के राजा ने बलराम को समीप आते देखा तो वह तुरन्त अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। राजा ने बड़े प्रेम से विशद पूजा करके परम आराध्य प्रभु का सम्मान शास्त्रीय आदेशों के अनुसार किया। |
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श्लोक 26: सर्वशक्तिमान भगवान् बलराम अपने प्रिय भक्त जनक महाराज से सम्मानित होकर मिथिला में कई वर्षों तक रुके रहे। इसी समय धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने बलराम से गदा युद्ध करने की कला सीखी। |
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श्लोक 27: भगवान् केशव द्वारका आये और उन्होंने शतधन्वा की मृत्यु तथा स्यमन्तक मणि को खोज पाने में अपनी असफलता का विवरण दिया। वे इस तरह बोले जिससे उनकी प्रियतमा सत्यभामा प्रसन्न हो सकें। |
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श्लोक 28: तब भगवान् कृष्ण ने अपने मृत सम्बन्धी सत्राजित के लिए विविध अन्तिम संस्कार सम्पन्न कराये। भगवान् परिवार के शुभचिन्तकों के साथ शवयात्रा में सम्मिलित हुए। |
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श्लोक 29: जब अक्रूर तथा कृतवर्मा ने, जिन्होंने शुरू में शतधन्वा को अपराध करने के लिए उकसाया था, यह सुना कि वह मारा गया है, तो वे भय के कारण द्वारका से भाग गये और उन्होंने अन्यत्र जाकर शरण ली। |
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श्लोक 30: अक्रूर की अनुपस्थिति में द्वारका में तमाम अपशकुन होने लगे और वहाँ के निवासी शारीरिक तथा मानसिक कष्टों के अतिरिक्त दैविक तथा भौतिक उत्पातों से भी त्रस्त रहने लगे। |
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श्लोक 31: कुछ लोगों ने प्रस्तावित तो किया [कि ये विपत्तियाँ अक्रूर की अनुपस्थिति के कारण हैं] : किन्तु वे भगवान् की उन महिमाओं को भूल गए थे, जिनका वर्णन वे प्राय: स्वयं किया करते थे। निस्सन्देह उस स्थान में विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं, जहाँ समस्त मुनियों के आश्रय रूप भगवान् निवास करते हों? |
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श्लोक 32: [बड़े बूढ़ों ने कहा] : पूर्वकाल में जब इन्द्र ने काशी (बनारस) पर वर्षा करनी बन्द कर दी तो उस शहर के राजा ने अपनी पुत्री गान्दिनी श्वफल्क को दे दी जो उस समय उससे मिलने आया था। तब तुरन्त ही काशी राज्य में वर्षा हुई। |
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श्लोक 33: जहाँ भी इन्द्र के ही समान शक्तिशाली उसका बेटा अक्रूर ठहरता है, वहीं वह पर्याप्त वर्षा करेगा। निस्सन्देह, वह स्थान समस्त कष्टों तथा असामयिक मृत्युओं से रहित हो जायेगा। |
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श्लोक 34: वृद्धजनों से ये वचन सुनकर भगवान् जनार्दन ने यह जानते हुए कि अपशकुनों का एकमात्र कारण अक्रूर की अनुपस्थिति नहीं थी, उन्हें द्वारका वापस बुलवाया और उनसे बोले। |
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श्लोक 35-36: भगवान् कृष्ण ने अक्रूर का स्वागत-सत्कार किया, उनका गोपनीय तौर पर अभिवादन किया और उनसे मधुर शब्द कहे। तब हर बात जानने वाले होने के कारण भगवान्, जो कि अक्रूर के हृदय से भलीभाँति अवगत थे, हँसे और उनको सम्बोधित किया, “हे दानपति, अवश्य ही वह ऐश्वर्यशाली स्यमन्तक मणि शतधन्वा तुम्हारे संरक्षण में छोड़ गया था और अब भी तुम्हारे पास है। असल में, हम इसे लगातार जानते रहे हैं।” |
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श्लोक 37: “चूँकि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है, अत: उसकी पुत्री के पुत्र उसके उत्तराधिकारी होंगे। उन्हें ही श्राद्ध के निमित्त तर्पण तथा पिण्डदान करना चाहिए, अपने नाना का ऋण चुकता करना चाहिए और शेष धन अपने लिए रखना चाहिए। |
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श्लोक 38-39: “तो भी, हे विश्वासपात्र अक्रूर, यह मणि तुम्हारे संरक्षण में रहना चाहिए क्योंकि अन्य कोई इसे सुरक्षित नहीं रख सकता। बस एक बार यह मणि दिखला दो क्योंकि मैंने इसके विषय में अपने अग्रज से जो कुछ कहा है वे उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं करते। इस तरह हे परम भाग्यशाली, तुम मेरे सम्बन्धियों को शान्त कर सकोगे। [हर व्यक्ति जानता है कि मणि तुम्हारे पास है क्योंकि] तुम इस समय लगातार सोने की बनी वेदिकाओं में यज्ञ सम्पन्न कर रहे हो।” |
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श्लोक 40: इस तरह भगवान् कृष्ण के समन्वयात्मक शब्दों से लज्जित होकर श्वफल्क-पुत्र उस मणि को वहाँ से निकाल कर ले आया जहाँ उसने अपने वस्त्रों में छिपा रखा था और उसे भगवान् को दे दिया। यह चमकीला मणि सूर्य की तरह चमक रहा था। |
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श्लोक 41: अपने सम्बन्धियों को स्यमन्तक मणि दिखला चुकने के बाद सर्वशक्तिमान भगवान् ने अपने विरुद्ध लगे झूठे आक्षेपों को दूर करते हुए उसे अक्रूर को लौटा दिया। |
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श्लोक 42: यह आख्यान, जो भगवान् विष्णु के पराक्रम के वर्णनों से युक्त है, पापपूर्ण फलों को दूर करता है और समस्त मंगल प्रदान करता है। जो कोई भी इसे पढ़ता, सुनता या स्मरण करता है, वह अपनी अपकीर्ति तथा पापों को भगा सकेगा और शान्ति प्राप्त करेगा। |
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