यानि योधै: प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह ।
हरिस्तान्यच्छिनत्तीक्ष्णै: शरैरेकैकशस्त्रिभि: ॥ १७ ॥
उह्यमान: सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान् ।
गुरुत्मता हन्यमानास्तुण्डपक्षनखेर्गजा: ॥ १८ ॥
पुरमेवाविशन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
यानि—वे जो; योधै:—योद्धाओं द्वारा; प्रयुक्तानि—प्रयुक्त; शस्त्र—काटने वाले हथियार; अस्त्राणि—तथा फेंककर चलाये जाने वाले हथियार; कुरु-उद्वह—हे कुरुओं के वीर (राजा परीक्षित); हरि:—भगवान् कृष्ण ने; तानि—उनको; अच्छिनत्—खण्ड खण्ड कर दिया; तीक्ष्णै:—नुकीले; शरै:—बाणों से; एक-एकश:—एक एक करके; त्रिभि:—तीन; उह्यमान:—ले जाये गये; सु-पर्णेन—बड़े बड़े पंखो वाले (गरुड़) द्वारा; पक्षाभ्याम्—दोनों पंखों से; निघ्नता—प्रहार करता; गजान्—हाथियों को; गुरुत्मता—गरुड़ द्वारा; हन्यमाना:—मारा जाकर; तुण्ड—चोंच; पक्ष—पंखों; नखे:—तथा पंजों से; गजा:—हाथी; पुरम्— नगर में; एव—निस्सन्देह; आविशन्—फिर से भीतर जाकर; आर्ता:—दुखी; नरक:—नरक (भौम); युधि—युद्ध में; अयुध्यत—लड़ता रहा ।.
अनुवाद
हे कुरुवीर, तब भगवान् हरि ने उन सारे अस्त्रों तथा शस्त्रों को मार गिराया जिन्हें शत्रु सैनिकों ने उन पर फेंका था और हर एक को तीन तेज बाणों से नष्ट कर डाला। इस बीच, भगवान् को उठाकर ले जाते हुए गरुड़ ने अपने पंखों से शत्रु के हाथियों पर प्रहार किया। ये हाथी गरुड़ के पंखों, चोंच तथा पंजों से प्रताडि़त होने से भाग कर नगर के भीतर जा घुसे जिससे कृष्ण का सामना करने के लिए युद्धभूमि में केवल नरकासुर बच रहा।
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