श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नन्द:—नन्द महाराज ने; पथि—घर आते हुए, रास्ते में; वच:—शब्द; शौरे:—वसुदेव के; न—नहीं; मृषा—निरर्थक; इति—इस प्रकार; विचिन्तयन्—अपने पुत्र के अशुभ के विषय में सोच कर; हरिम्—भगवान्, नियन्ता की; जगाम—ग्रहण की; शरणम्—शरण; उत्पात—उपद्रवों की; आगम—आशा से; शङ्कित:— भयभीत हुए ।.
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्! जब नन्द महाराज घर वापस आ रहे थे तो उन्होंने विचार किया कि वसुदेव ने जो कुछ कहा था वह असत्य या निरर्थक नहीं हो सकता। अवश्य ही गोकुल में उत्पातों के होने का कुछ खतरा रहा होगा। ज्योंही नन्द महाराज ने अपने सुन्दर पुत्र कृष्ण के लिए खतरे के विषय में सोचा त्योंही वे भयभीत हो उठे और उन्होंने परम नियन्ता के चरणकमलों में शरण ली।
तात्पर्य
जब कभी कोई संकट आ पड़ता है, तो शुद्ध भक्त सदैव भगवान् द्वारा दी जाने वाली संरक्षण तथा आश्रया के विषय में सोचता है। भगवद्गीता में भी (९.३३) इसी का उपदेश है— अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्। इस जगत में पग पग पर संकट (विपदा) है (पदं पदं यद्विपदाम् )। अतएव भक्त के लिए पद-पद पर भगवान् की शरण में जाने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं रहता।
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