श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 6: पूतना वध  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  10.6.13 
निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसु-
र्व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि ।
प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिता
वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
निशा-चरी—राक्षसी ने; इत्थम्—इस तरह; व्यथित-स्तना—स्तन पर दबाब पडऩे से दुखी; व्यसु:—प्राण छोड़ दिया; व्यादाय—मुँह फैला कर; केशान्—बालों का गुच्छा; चरणौ—दोनों पाँव; भुजौ—दोनों हाथ; अपि—भी; प्रसार्य—पसार कर; गोष्ठे—गोचर में; निज-रूपम् आस्थिता—अपने मूल आसुरी रूप में स्थित; वज्र-आहत:—इन्द्र के वज्र से मरा हुआ; वृत्र:— वृत्रासुर; इव—सदृश; अपतत्—गिर पड़ी; नृप—हे राजन् ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह कृष्ण द्वारा स्तन पर दबाव डालने से अत्यन्त व्यथित पूतना ने अपने प्राण त्याग दिये। हे राजा परीक्षित, वह अपना मुँह फैलाये तथा अपने हाथ, पाँव पसारे और बाल फैलाये अपने मूल राक्षसी रूप में गोचर में गिर पड़ी मानो इन्द्र के वज्र से आहत वृत्रासुर गिरा हो।
 
तात्पर्य
 पूतना दुर्दांत राक्षसी थी जिसे योगशक्ति द्वारा अपने मूल रूप को छिपाने की कला ज्ञात थी किन्तु जब वह मर गई तो उसकी योगशक्ति उसे छिपा न पाई जिससे वह अपने मूल रूप में प्रकट हो गई।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥