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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 6: पूतना वध  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  10.6.3 
न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्च तत्र हि ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; यत्र—जहाँ; श्रवण-आदीनि—श्रवण, कीर्तन इत्यादि भक्तियोग के कार्य; रक्ष:-घ्नानि—समस्त विपदाओं तथा अशुभों को मारने की ध्वनि; स्व-कर्मसु—अपने काम में लगी; कुर्वन्ति—ऐसे कार्य किये जाते हैं; सात्वताम् भर्तु:—भक्तों के रक्षक के; यातुधान्य:—बुरे लोग, उत्पाती; —भी; तत्र हि—हो न हो ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्! जहाँ भी लोग कीर्तन तथा श्रवण द्वारा भक्तिकार्यों की अपनी वृत्तियों में लगे रहते हैं (श्रवणं कीर्तनं विष्णो:) वहाँ बुरे लोगों से किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता। जब साक्षात् भगवान् वहाँ विद्यमान हों तो गोकुल के विषय में किसी प्रकार की चिन्ता की आवश्यकता नहीं थी।
 
तात्पर्य
 शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित की चिन्ता दूर करने के लिए ही यह श्लोक कहा। चूँकि महाराज परीक्षित कृष्णभक्त थे अतएव जब उन्होंने समझा कि गोकुल में पूतना उत्पात मचा रही थी तो वे कुछ कुछ उद्विग्न हो उठे। इसलिए शुकदेव गोस्वामी ने उन्हें आश्वस्त किया कि गोकुल में कोई खतरा नहीं था। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का गीत है : नामाश्रय करिऽ यतने तुमि, थाकह आपन काजे। इसलिए हर एक को सलाह दी जाती है कि वह हरे कृष्ण महामंत्र कीर्तन का आश्रय ग्रहण करे और अपने कार्य में लगा रहे। इसमें कोई हानि नहीं किन्तु लाभ अथाह है। यहाँ तक कि भौतिक दृष्टि से भी सभी प्रकार के खतरों से बचने के लिए हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करना चाहिए। यह जगत खतरे से पूर्ण है (पदं पदं यद्विपदाम् )। इसलिए हमें हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने के लिए प्रोत्साहित होना चाहिए जिससे हमारे परिवार, समाज, पड़ोस तथा देश के सारे काम आसानी से चलें और कोई खतरा न रहे।
 
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