श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 6: पूतना वध  »  श्लोक 35-36
 
 
श्लोक  10.6.35-36 
पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना ।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाप सद्गतिम् ॥ ३५ ॥
किं पुन: श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने ।
यच्छन् प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
पूतना—पेशेवर राक्षसी पूतना; लोक-बाल-घ्नी—जो मनुष्यों के बालकों को मार डालती थी; राक्षसी—राक्षसी; रुधिर- अशना—खून की प्यासी; जिघांसया—कृष्ण को मार डालने की इच्छा से (कृष्ण से ईर्ष्या करने तथा कंस द्वारा आदेश दिये जाने से); अपि—भी; हरये—भगवान् को; स्तनम्—अपने स्तन; दत्त्वा—प्रदान करके; आप—प्राप्त किया; सत्-गतिम्— वैकुण्ठ का सर्वोच्च पद; किम्—क्या कहा जाय; पुन:—फिर; श्रद्धया—श्रद्धायुत; भक्त्या—भक्तिपूर्वक; कृष्णाय—कृष्ण को; परमात्मने—परम पुरुष; यच्छन्—भेंट करते हुए; प्रिय-तमम्—अत्यन्त प्रिय; किम्—कुछ; नु—निस्सन्देह; रक्ता:— सम्बन्धी; तत्-मातर:—कृष्ण की स्नेहमयी माताएँ; यथा—जिस तरह ।.
 
अनुवाद
 
 पूतना सदा ही मानव शिशुओं के खून की प्यासी रहती थी और इसी अभिलाषा से वह कृष्ण को मारने आई थी। किन्तु कृष्ण को स्तनपान कराने से उसे सर्वोच्च पद प्राप्त हो गया। तो भला उनके विषय में क्या कहा जाय जिनमें माताओं के रूप में कृष्ण के लिए सहज भक्ति तथा स्नेह था और जिन्होंने अपना स्तनपान कराया या कोई अत्यन्त प्रिय वस्तु भेंट की थी जैसा कि माताएँ करती रहती हैं।
 
तात्पर्य
 पूतना को कृष्ण से कोई स्नेह न था, प्रत्युत वह उनसे ईर्ष्या करती थी और उन्हें मार डालना चाहती थी। फिर भी जाने-अनजाने उसने उन्हें स्तनपान करा कर परमगति प्राप्त की। किन्तु वात्सल्य प्रेम में अनुरक्त भक्तों की भेंट अत्यन्त निष्ठायुक्त होती है। माता अपने पुत्र को स्नेह तथा प्रेम से कोई वस्तु भेंट करना चाहती है, तो उसमें ईर्ष्या का लेशमात्र भी नहीं रहता। अत: हम यहाँ तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं। यदि पूतना उपेक्षा भाव से ईर्ष्यापूर्वक स्तनपान करा कर आध्यात्मिक जीवन का ऐसा सर्वोच्च पद प्राप्त कर सकती है, तो भला माता यशोदा तथा अन्य गोपियों के विषय में क्या कहा जाय जिन्होंने कृष्ण की सेवा लाड़-प्यार के साथ की और कृष्ण की तुष्टि के लिए हर वस्तु अर्पित कर दी? गोपियों को स्वत: परम पद प्राप्त हुआ। इसीलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने वात्सल्य प्रेम या माधुर्य प्रेम में गोपियों के स्नेह को ही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि बतलाया (रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता )।
 
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