श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 6: पूतना वध  »  श्लोक 37-38
 
 
श्लोक  10.6.37-38 
पद्‌भ्यां भक्तहृदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितै: ।
अङ्गं यस्या: समाक्रम्य भगवानपितत् स्तनम् ॥ ३७ ॥
यातुधान्यपि सा स्वर्गमवाप जननीगतिम् ।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीरा: किमु गावोऽनुमातर: ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
पद्भ्याम्—दोनों चरणकमलों से; भक्त-हृदि-स्थाभ्याम्—जिनके हृदय में भगवान् निरन्तर स्थित रहते हैं; वन्द्याभ्याम्—जिनकी सदैव वन्दना की जानी चाहिए; लोक-वन्दितै:—ब्रह्मा तथा शिव द्वारा, जो तीनों लोकों के वासियों द्वारा प्रशंसित हैं; अङ्गम्— शरीर को; यस्या:—जिस (पूतना) का; समाक्रम्य—आलिंगन करके; भगवान्—भगवान्; अपि—भी; तत्-स्तनम्—उस स्तन को; यातुधानी अपि—यद्यपि वह भूतनी थी; सा—उसने; स्वर्गम्—दिव्य धाम को; अवाप—प्राप्त किया; जननी-गतिम्—माता के पद को; कृष्ण-भुक्त-स्तन-क्षीरा:—चूँकि उनके स्तनों का पान कृष्ण ने किया था; किम् उ—क्या कहा जाय; गाव:—गौवें; अनुमातर:—माताओं की ही तरह जिन्होंने कृष्ण को अपना स्तन-पान कराया ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् कृष्ण शुद्ध भक्तों के हृदय में सदैव स्थित रहते हैं और ब्रह्माजी तथा भगवान् शिवजी जैसे पूज्य पुरूषों द्वारा सदैव वन्दनीय हैं। चूँकि कृष्ण ने पूतना के शरीर का आलिंगन अत्यन्त प्रेमपूर्वक किया था और भूतनी होते हुए भी उन्होंने उसका स्तनपान किया था इसलिए उसे दिव्य लोक में माता की गति और सर्वोच्च सिद्धि मिली। तो भला उन गौवों के विषय में क्या कहा जाय जिनका स्तनपान कृष्ण बड़े ही आनन्द से करते थे और जो बड़े ही प्यार से माता के ही समान कृष्ण को अपना दूध देती थीं?
 
तात्पर्य
 ये श्लोक बतलाते हैं कि भगवान् की भक्ति चाहे प्रत्यक्ष की जाय या अप्रत्यक्ष, ज्ञान से की जाय या अनजाने, वह सफल होती है। पूतना न भक्त थी न ही अभक्त, वह तो कृष्ण को मारने के लिए कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी थी। फिर भी पहले उसने अत्यन्त सुन्दर स्त्री का वेश धारण किया और कृष्ण के पास उसी तरह पहुँची जैसे स्नेहमयी माता जाती है, जिससे माता यशोदा और रोहिणी ने उसकी निष्कपटता पर सन्देह नहीं किया। भगवान् ने इन सब बातों को ध्यान में रखा। अत: उसे माता यशोदा जैसा ही पद प्राप्त हुआ। जैसाकि श्रील विश्वाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने बतलाया है, ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति अनेक भूमिकाएँ निभा सकता है। पूतना को तुरन्त वैकुण्ठ लोक भेज दिया गया जिसे कभी कभी स्वर्ग भी कह दिया जाता है। इस श्लोक में वर्णित स्वर्ग कोई भौतिक लोक नहीं अपितु दिव्य लोक है। वैकुण्ठ लोक में पूतना को धाय का पद प्राप्त हुआ (धात्र्युचिताम् ) जैसाकि उद्धव ने बतलाया है। गोलोक वृन्दावन में माता यशोदा की सहायता करने के लिए उसे धाय तथा दासी का पद दिया गया।
 
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