नन्द:—महाराज नन्द; स्व-पुत्रम् आदाय—अपने पुत्र कृष्ण को अपनी गोद में लेकर; प्रेत्य-आगतम्—मानो कृष्ण मृत्यु के मुख से लौट आये हों (कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बालक ऐसे संकट से बच जाएगा); उदार-धी:—उदार तथा सरल होने से; मूर्ध्नि—कृष्ण के सिर पर; उपाघ्राय—सूँघ कर; परमाम्—सर्वोच्च; मुदम्—शान्ति; लेभे—प्राप्त किया; कुरु-उद्वह—हे महाराज परीक्षित ।.
अनुवाद
हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, नन्द महाराज अत्यन्त उदार एवं सरल स्वभाव के थे। उन्होंने तुरन्त अपने पुत्र कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया मानो कृष्ण मृत्यु के मुख से लौटे हों और अपने पुत्र के सिर को सूँघ कर निस्सन्देह दिव्य आनन्द का अनुभव किया।
तात्पर्य
नन्द महाराज यह नहीं समझ पाये कि उनके घर के लोगों ने किस तरह पूतना को घर में घुसने दिया, न ही वे इस स्थिति की गम्भीरता का अनुमान लगा सके। वे यह नहीं समझ पाये कि कृष्ण ने पूतना को मारना चाहा था और उनकी लीलाएँ योगमाया द्वारा सम्पन्न की गईं। नन्द महाराज ने तो केवल इतना ही सोचा कि किसी ने उनके घर में घुस कर उत्पात मचा दिया है। यही नन्द महाराज का भोलापन था।
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