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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  10.60.1 
श्रीबादरायणिरुवाच
कर्हिचित् सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम् ।
पतिं पर्यचरद् भैष्मी व्यजनेन सखीजनै: ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-बादरायणि:—बादरायण व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने; उवाच—कहा; कर्हिचित्—एक अवसर पर; सुखम्— सुखपूर्वक; आसीनम्—बैठे हुए; स्व—अपने; तल्प—बिस्तर में; स्थम्—स्थित; जगत्—ब्रह्माण्ड के; गुरुम्—गुरु; पतिम्— अपने पति को; पर्यचरत्—सेवा कर रही थी; भैष्मी—रुक्मिणी; व्यजनेन—पंखे से; सखी-जनै:—अपनी सखियों सहित ।.
 
अनुवाद
 
 श्री बादरायणि ने कहा : एक बार अपनी दासियों के साथ महारानी रुक्मिणी ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक गुरु अपने पति की सेवा कर रही थीं। वे उनके बिस्तर पर विश्राम कर रहे थे तथा वे उन पर पंखा झल रही थीं।
 
तात्पर्य
 श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ने काव्यात्मक टिप्पणी में कहा है कि इस अध्याय में रुक्मिणी उस सुगंधित कपूर की तरह हैं, जिन्हें भगवान् कृष्ण की वाणी की सिल पर पीस दिया गया हो। दूसरे शब्दों में, रुक्मिणी के मनोहर सात्विक गुणों का प्राकट्य भगवान् कृष्ण के ऊपरी असंवेदनशील वचनों के फलस्वरूप होगा, जिस प्रकार कपूर की सुगन्ध कपूर के खण्डों को सिल पर पीसने से प्रकट होती है। आचार्य ने यह भी इंगित किया है कि रुक्मिणी भगवान् की सेवा स्वयं इसलिए कर रही हैं, क्योंकि वे जगद्गुरुम् तथा पतिम् अर्थात् जगत् गुरु तथा उनके पति हैं।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥