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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  10.60.2 
यस्त्वेतल्ल‍ीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वर: ।
स हि जात: स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वज: ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो; तु—तथा; एतत्—यह; लीलया—खेल की तरह; विश्वम्—ब्रह्माण्ड को; सृजति—उत्पन्न करता है; अत्ति—निगल जाता है; अवति—रक्षा करता है; ईश्वर:—परम नियन्ता; स:—वह; हि—निस्सन्देह; जात:—उत्पन्न; स्व—निजी; सेतूनाम्— नियमों की; गोपीथाय—सुरक्षा के लिए; यदुषु—यदुओं के मध्य; अज:—अजन्मा प्रभु ।.
 
अनुवाद
 
 इस ब्रह्माण्ड को खेल-खेल में उत्पन्न करने वाले, उसका पालन करने वाले तथा अन्त में उसको निगल जाने वाले अजन्मे परम नियन्ता भगवान् ने अपने नियमों को सुरक्षित रखने के लिए यदुओं के मध्य जन्म लिया।
 
तात्पर्य
 जैसाकि श्रीमद्भागवत के छठे स्कंध (६.३.१९) में कहा गया है—धर्मं तु साक्षाद् भगवत्प्रणीतम्—अर्थात् धर्म भगवान् द्वारा स्थापित कानून है। सेतु का अर्थ है “सीमा” जैसी कि बाँध में होती है। किसी नदी या नहर के दोनों ओर मिट्टी उठा दी जाती है, जिससे पानी अपने सही मार्ग से विचलित न हो। इसी प्रकार ईश्वर नियमों की स्थापना करते हैं जिससे उन्हें पालन करने वाले लोग भगवद्धाम वापस जा सकें। मानव आचरण का मार्गदर्शन कराने वाले ये नियम सेतु कहलाते हैं।

सेतु शब्द पर एक और टिप्पणी यह है कि सेतु का प्रयोग खेतों के पृथक्करण अथवा उन पर बनी मेड़ या पुल बनाने के लिए भी होता है। अत: भागवत के नवें स्कंध में भगवान् रामचन्द्र द्वारा लंका जाने के लिए जो पुल बनाया गया उसे सेतु कहा गया है। चूँकि ईश्वर के नियम हमें भौतिक जीवन से मुक्त दिव्य जीवन तक ले जाने के लिए पुल का काम करते हैं इसलिए सेतु शब्द का ऐसा व्यवहार दृष्टव्य है।

 
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