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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  10.60.20 
उदासीना वयं नूनं न स्‍त्र्यपत्यार्थकामुका: ।
आत्मलब्ध्यास्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रिया: ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
उदासीना:—अन्यमनस्क; वयम्—हम; नूनम्—निस्सन्देह; —नहीं; स्त्री—पत्नियों; अपत्य—सन्तानों; अर्थ—तथा धन के लिए; कामुका:—लालसा करते हुए, लोलुप; आत्म-लब्ध्या—आत्मतुष्ट होकर; आस्महे—हम रह रहे हैं; पूर्णा:—पूर्ण; गेहयो:—शरीर तथा घर के प्रति; ज्योति:—अग्नि की तरह; अक्रिया:—किसी कार्य में न लगे हुए ।.
 
अनुवाद
 
 हम स्त्रियों, बच्चों तथा सम्पत्ति की तनिक भी परवाह नहीं करते। सदैव आत्मतुष्ट रहते हुए हम शरीर तथा घर के लिए कार्य नहीं करते बल्कि प्रकाश की तरह हम केवल साक्षी रहते हैं।
 
 
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