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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  10.60.22 
इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मन:
प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम् ।
आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-
श्चिन्तां दुरन्तां रुदती जगाम ह ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; त्रि-लोक—तीनों लोकों के; ईश—स्वामियों के; पते:—स्वामी के; तदा—तब; आत्मन:—अपने ही; प्रियस्य—प्रेमी का; देवी—देवी रुक्मिणी ने; अश्रुत—कभी न सुना गया; पूर्वम्—पहले; अप्रियम्—अप्रियता; आश्रुत्य— सुनकर; भीता—भयभीत; हृदि—अपने हृदय में; जात—उत्पन्न; वेपथु:—कम्पन; चिन्ताम्—चिन्ता; दुरन्ताम्—भयानक; रुदती—सिसकती; जगाम ह—अनुभव किया ।.
 
अनुवाद
 
 रुक्मिणीदेवी ने इसके पूर्व कभी भी अपने प्रिय त्रिलोकेश-पति से ऐसी अप्रिय बातें नहीं सुनी थीं अत: वे भयभीत हो उठीं। उनके हृदय में कँपकपी शुरू हो गई और भीषण उद्विग्नता में वे रोने लगीं।
 
 
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