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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  10.60.24 
तस्या: सुदु:खभयशोकविनष्टबुद्धे-
र्हस्ताच्छ्‍लथद्वलयतो व्यजनं पपात ।
देहश्च विक्लवधिय: सहसैव मुह्यन्
रम्भेव वायुविहतो प्रविकीर्य केशान् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
तष्या:—उसके; सु-दु:ख—अत्यधिक दुख; भय—डर; शोक—तथा शोक से; विनष्ट—नष्ट हुई; बुद्धे:—बुद्धि वाली; हस्तात्—हाथ से; श्लथत्—खिसकते हुए; वलयत:—चूडिय़ों वाली; व्यजनम्—पंखा; पपात—गिर गया; देह:—उसका शरीर; —भी; विक्लव—विकल; धिय:—जिसका मन; सहसा एव—सहसा; मुह्यन्—मूर्छित हुई; रम्भा—केले के वृक्ष; इव—सदृश; वायु—वायु से; विहत:—उखाड़े गये; प्रविकीर्य—बिखराते हुए; केशान्—अपने बाल ।.
 
अनुवाद
 
 रुक्मिणी का मन दुख, भय तथा शोक से अभिभूत हो गया। उनकी चूडिय़ाँ उनके हाथ से सरक गईं और उनका पंखा जमीन पर गिर पड़ा। वे मोहवश सहसा मूर्छित हो गईं, उनके बाल इधर-उधर बिखर गये और उनका शरीर भूमि पर इस तरह गिर गया जिस तरह हवा से उखड़ा हुआ केले का वृक्ष गिर पड़ता है।
 
तात्पर्य
 भगवान् कृष्ण के शब्दों से मर्माहत होने से रुक्मिणी यह नहीं समझ पाईं कि भगवान् उन्हें केवल सता रहे हैं इसीलिए उनमें शोक के ये भाव दिखे जिन्हें श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ने सात्विक भाव कहा है, जो स्तम्भित होने से लेकर मरण दशा तक विस्तीर्ण होते हैं।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥