महारानी रुक्मिणी के कमरे अत्यन्त सुन्दर थे। उसमें एक चँदोवे से मोतियों की चमकीली लड़ें लटक रही थीं और तेजोमय मणियाँ दीपकों का काम दे रही थीं। उसमें यत्र-तत्र चमेली तथा अन्य फूलों की मालाएँ लटक रही थीं जिनसे गुनगुनाते भौंरों के समूह आकृष्ट हो रहे थे और चन्द्रमा की निर्मल किरणें जाली की खिड़कियों के छेदों से होकर चमक रही थीं। हे राजन्, जब इन खिड़कियों के छेदों में से अगुरु की सुगंध बाहर निकलती तो पारिजात कुंज की सुगंध को ले जाने वाली मन्द बयार कमरे के भीतर बगीचे का वातावरण पैदा कर देती। इस कमरे में महारानी समस्त लोकों के परमेश्वर अपने पति की सेवा कर रही थीं जो उनके मुलायम तथा दूध के फेन जैसे सफेद बिस्तर पर एक भव्य तकिये के सहारे बैठे थे।
तात्पर्य
श्रील श्रीधर स्वामी के अनुसार रुक्मिणी का महल आज की ही तरह तब भी विख्यात था। यह वर्णन उसके ऐश्वर्य की झाँकी प्रस्तुत करता है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि इस श्लोक के अमलै का पाठान्तर अरुणै भी हो सकता है, जो यह सूचित करेगा कि जब यह लीला हो रही थी तब चन्द्रमा उसी समय उदय हुआ था और सारे महल को सुन्दर चाँदनी की लालिमा से नहला रहा था।
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