हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 3-6
 
 
श्लोक  10.60.3-6 
तस्मिनन्तर्गृहे भ्राजन्मुक्तादामविलम्बिना ।
विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि ॥ ३ ॥
मल्लिकादामभि: पुष्पैर्द्विरेफकुलनादिते ।
जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलै: ॥ ४ ॥
पारिजातवनामोदवायुनोद्यानशालिना ।
धूपैरगुरुजै राजन् जालरन्ध्रविनिर्गतै: ॥ ५ ॥
पय:फेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे ।
उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—उसमें; अन्त:-गृहे—महल के भीतरी भाग में; भ्राजत्—चमकीली; मुक्ता—मोतियों की; दाम—डोरियों से; विलम्बिना—लटकती हुईं; विराजिते—चमकीली; वितानेन—चँदोवे से; दीपै:—दीपकों से; मणि—मणियों के; मयै:— निर्मित; अपि—भी; मल्लिका—चमेली की; दामभि:—मालाओं से; पुष्पै:—फूलों से; द्विरेफ—भौंरों के; कुल—झुंड के साथ; नादिते—शब्दायमान; जाल—झरोखों के; रन्ध्र—छोटे छोटे छेदों से होकर; प्रविष्टै:—प्रविष्ट; —तथा; गोभि:—किरणों से; चन्द्रमस:—चन्द्रमा की; अमलै:—निर्मल; पारिजात—पारिजात वृक्षों के; वन—कुंज के; आमोद—सुगंध (वहन करते); वायुना—हवा द्वारा; उद्यान—बगीचे की; शालिना—उपस्थिति लाते हुए; धूपै:—धूप से; अगुरु—अगुरु से; जै:—उत्पन्न; राजन्—हे राजा (परीक्षित); जाल-रन्ध्र—झरोखे के छेदों से; विनिर्गतै:—बाहर निकलते हुए; पय:—दूध के; फेन—झाग; निभे—सदृश; शुभ्रे—चमकीला; पर्यङ्के—बिस्तर पर, सेज पर; कशिपु—तकिया पर; उत्तमे—सर्वश्रेष्ठ; उपतस्थे—सेवा कर रही थी; सुख—सुखपूर्वक; आसीनम्—बैठे; जगताम्—सारे लोकों के; ईश्वरम्—परम नियन्ता; पतिम्—अपने पति की ।.
 
अनुवाद
 
 महारानी रुक्मिणी के कमरे अत्यन्त सुन्दर थे। उसमें एक चँदोवे से मोतियों की चमकीली लड़ें लटक रही थीं और तेजोमय मणियाँ दीपकों का काम दे रही थीं। उसमें यत्र-तत्र चमेली तथा अन्य फूलों की मालाएँ लटक रही थीं जिनसे गुनगुनाते भौंरों के समूह आकृष्ट हो रहे थे और चन्द्रमा की निर्मल किरणें जाली की खिड़कियों के छेदों से होकर चमक रही थीं। हे राजन्, जब इन खिड़कियों के छेदों में से अगुरु की सुगंध बाहर निकलती तो पारिजात कुंज की सुगंध को ले जाने वाली मन्द बयार कमरे के भीतर बगीचे का वातावरण पैदा कर देती। इस कमरे में महारानी समस्त लोकों के परमेश्वर अपने पति की सेवा कर रही थीं जो उनके मुलायम तथा दूध के फेन जैसे सफेद बिस्तर पर एक भव्य तकिये के सहारे बैठे थे।
 
तात्पर्य
 श्रील श्रीधर स्वामी के अनुसार रुक्मिणी का महल आज की ही तरह तब भी विख्यात था। यह वर्णन उसके ऐश्वर्य की झाँकी प्रस्तुत करता है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि इस श्लोक के अमलै का पाठान्तर अरुणै भी हो सकता है, जो यह सूचित करेगा कि जब यह लीला हो रही थी तब चन्द्रमा उसी समय उदय हुआ था और सारे महल को सुन्दर चाँदनी की लालिमा से नहला रहा था।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥