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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  10.60.30 
मुखं च प्रेमसंरम्भस्फुरिताधरमीक्षितुम् ।
कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम् ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
मुखम्—मुख; —तथा; प्रेम—प्रेम के; संरम्भ—कोप से; स्फुरित—हिलते; अधरम्—होठों से; ईक्षितुम्—देखने के लिए; कटा—तिरछी चितवन के; क्षेप—फेंके जाने से; अरुण—लाल लाल; अपाङ्गम्—आँखों के कोर; सुन्दर—सुन्दर; भ्रु—भौंहों का; कुटी—गहराना; तटम्—किनारों पर ।.
 
अनुवाद
 
 मैं यह भी चाहता था कि प्रणयकोप में काँपते तुम्हारे अधर, तिरछी चितवनों वाली तुम्हारी आँखों के लाल-लाल कोर तथा क्रोध से तनी तुम्हारी सुन्दर भौंहों की रेखा से युक्त तुम्हारा मुख देख सकूँ।
 
तात्पर्य
 श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती व्याख्या करते हैं कि सामान्यतया भगवान् की दिव्य इच्छा से उनके शुद्ध भक्त उनके साथ ऐसा आदान-प्रदान करते हैं जिससे उनकी आध्यात्मिक इच्छाओं की तुष्टि हो सके। किन्तु रुक्मिणी का प्रेम इतना प्रबल था कि उनकी अद्वितीय मुद्रा इस परिस्थिति में प्रधान बन गई और वे कुपित होने की बजाय मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ीं। इस तरह कृष्ण को अप्रसन्न करना तो दूर रहा, उनके प्रति सर्वव्यापक प्रेम प्रदर्शित करते हुए उन्होंने उनके दिव्य आनन्द में वृद्धि कर दी।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥