हे प्रभु, जिस तरह सिंह भेंट का अपना उचित भाग लेने के लिए छोटे पशुओं को भगा देता है उसी तरह आपने अपने शार्ङ्ग धनुष की टंकार से एकत्रित राजाओं को भगा दिया और फिर मुझे अपने उचित भाग के रूप में अपना बना लिया। अत: हे गदाग्रज, आपके द्वारा यह कहना निरी मूर्खता है कि आपने उन राजाओं के भय से समुद्र में शरण ग्रहण की। ।
तात्पर्य
श्लोक १२ में कृष्ण ने कहा है—राजभ्यो बिभ्यत: सुभ्रु समुद्रं शरणं गतान्—उन राजाओं से भयभीत होकर हमने समुद्र में शरण ली। आचार्यों के अनुसार भगवान् कृष्ण ने ऐसे लोगों की प्रशंसा करके जो उनके पति होने की संभावना रखते थे रुक्मिणी का पूर्णरूपेण क्रोध-वर्धन किया। अत: वे क्षुब्ध होकर उनसे कहती हैं कि वे अज्ञानी नहीं हैं अपितु भगवान् ने ही मूर्खतापूर्ण वचन कहे हैं। वे कहती हैं, “तुमने सिंह की तरह उन सभी राजाओं के देखते-देखते मेरा हरण कर लिया और उन्हें अपने शार्ङ्ग धनुष से भगा दिया, इसलिए यह कहना निरी मूर्खता है कि उन्हीं राजाओं के डर से तुम समुद्र में गये।” श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार जब महारानी रुक्मिणी ये वचन कह रही थीं तो वे भौंहें चढ़ाकर क्रुद्ध दिखती थीं और भगवान् को क्रुद्ध तिरछी नजरों से देख रही थीं।”
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