हे कमल-नयन, यद्यपि आप अपने में तुष्ट रहते हैं जिससे शायद ही कभी मेरी ओर ध्यान देते हैं, तो भी कृपा करके मुझे अपने चरणकमलों के प्रति स्थायी प्रेम का आशीर्वाद दें। जब आप ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के लिए रजोगुण की प्रधानता धारण करते हैं तभी आप मुझ पर दृष्टि डालते हैं, जो निस्सन्देह मेरे ऊपर आपकी महती कृपा होती है।
तात्पर्य
इस अध्याय के श्लोक २० में कृष्ण ने कहा था, “हम सदैव आत्मतुष्ट रहने के कारण अपनी पत्नियों, बच्चों तथा सम्पत्ति की तनिक भी परवाह नहीं करते।” यहाँ पर रुक्मिणीदेवी विनीत भाव से उत्तर देती हैं, “हाँ, आप अपने भीतर आनन्द का अनुभव करते हैं इसीलिए मेरी ओर विरले ही देखते हैं।”
इस सन्दर्भ में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती इंगित करते हैं कि श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के प्रति अपने प्रेम की घोषणा पहले ही कर दी थी (भागवत १०.५३.२)—तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि—मैं उसके विषय में भी सोचता रहता हूँयहाँ तक कि मुझे रात में नींद नहीं आती। कृष्ण अपने में तुष्ट रहने वाले हैं और यदि हम यह स्मरण रखें कि श्रीमती रुक्मिणीदेवी उनकी अन्तरंगा शक्ति हैं, तो हम समझ सकते हैं कि उनके साथ कृष्ण के प्रेमालाप उनके शुद्ध आध्यात्मिक सुख की अभिव्यक्तियाँ हैं।
किन्तु यहाँ पर महारानी रुक्मिणी भगवान् की बहिरंगा शक्ति के रूप में अपनी पहचान करती हैं, जो कि उनकी अंशरूपा हैं। इसीलिए वे कहती हैं, “यद्यपि आप प्राय: मेरी ओर नहीं देखते किन्तु जब आप भौतिक ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाले होते हैं और रजोगुण के माध्यम से, जो कि आपकी शक्ति है, कार्य करना शुरू करते हैं, तो आप मुझ पर दृष्टि डालते हैं। इस तरह आप मुझ पर अपनी महती दया प्रदर्शित करते हैं।” इस तरह आचार्य विश्वनाथ बतलाते हैं कि देवी रुक्मिणी के कथन को दो प्रकार से समझा जा सकता है। और असल में सारे वैष्णवजन प्रामाणिक आचार्यों से कृष्ण-दर्शन को भलीभाँति समझ कर भगवान् तथा उनके महान् भक्तों के मध्य के इन प्र ेमालापों का आनन्द लूटते हैं।
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