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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 54
 
 
श्लोक  10.60.54 
दिष्‍ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया
कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलै: ।
सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो
ह्यसुंभराया निकृतिं जुष: स्‍त्रिया: ॥ ५४ ॥
 
शब्दार्थ
दिष्ट्या—भाग्यवश; गृह—घर की; ईश्वरी—स्वामिनी; असकृत्—निरन्तर; मयि—मुझमें; त्वया—तुम्हारे द्वारा; कृता—की हुई; अनुवृत्ति:—श्रद्धापूर्ण सेवा; भव—संसार से; मोचनी—मुक्ति दिलाने वाली; खलै:—ईर्ष्यालुओं के लिए; सु-दुष्करा—करना अत्यन्त कठिन; असौ—यह; सुतराम्—विशेष रूप से; दुराशिष:—दुष्ट मनोभावों वाले; हि—निस्सन्देह; असुम्—उसका प्राण; भराया:—जो (एकमात्र) पालन करती है; निकृतिम्—छलावा; जुष:—लिप्त; स्त्रिया:—स्त्री के लिए ।.
 
अनुवाद
 
 हे गृहस्वामिनी, सौभाग्यवश तुमने मेरी श्रद्धापूर्वक भक्ति की है, जो मनुष्य को संसार से मुक्त कराती है। ईर्ष्यालु के लिए यह सेवा अत्यन्त कठिन है, विशेषतया उस स्त्री के लिए जिसके मनोभाव दूषित हैं और जो शारीरिक क्षुधा शान्त करने के लिए ही जीवित है और जो छलछद्म में लिप्त रहती है।
 
तात्पर्य
 श्रील जीव गोस्वामी यह प्रश्न करते हैं: चूँकि भक्ति से मनुष्य को आसानी से मुक्ति मिल जाती है, तो फिर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सारे लोग मुक्त हो जाँय और यह संसार रहे ही न? वे इसका उत्तर देते हैं कि ऐसा कोई खतरा नहीं है क्योंकि ईर्ष्यालु, छलछद्ममय, विषयी लोगों के लिए भगवान् की श्रद्धापूर्वक सेवा कर पाना बहुत कठिन है और संसार में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥