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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 60: रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास  »  श्लोक 55
 
 
श्लोक  10.60.55 
न त्वाद‍ृशीं प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु
पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले ।
प्राप्तान् नृपान्न विगणय्य रहोहरो मे
प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य ॥ ५५ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; त्वादृशीम्—तुम जैसी; प्रणयिनीम्—प्रेम करने वाली; गृहिणीम्—पत्नी को; गृहेषु—मेरे आवासों में; पश्यामि— देखता हूँ; मानिनि—हे आदरणीय; यया—जिससे; स्व—अपने; विवाह—विवाह के; काले—समय में; प्राप्तान्—आये हुए; नृपान्—राजाओं को; न विगणय्य—परवाह न करते हुए; रह:—गुप्त सन्देश का; हर:—ले जाने वाला; मे—मेरे पास; प्रस्थापित:—भेजा गया; द्विज:—ब्राह्मण; उपश्रुत—सुनी हुई; सत्—सच्ची; कथस्य—जिसके विषय में कथाएँ ।.
 
अनुवाद
 
 हे सर्वाधिक आदरणीया, मुझे अपने सारे आवासों में तुम जैसी प्रेम करने वाली अन्य पत्नी ढूँढ़े नहीं मिलती। जब तुम्हारा ब्याह होने वाला था, तो तुमसे विवाह करने के इच्छुक जितने राजा एकत्र हुए थे उनकी परवाह तुमने नहीं की और क्योंकि तुमने मेरे विषय में प्रामाणिक बातें ही सुन रखी थीं तुमने अपना गुप्त सन्देश एक ब्राह्मण के हाथ मेरे पास भेजा।
 
 
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