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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 62: ऊषा-अनिरुद्ध मिलन  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  10.62.32 
जिघृक्षया तान् परित: प्रसर्पत:
शुनो यथा शूकरयूथपोऽहनत् ।
ते हन्यमाना भवनाद् विनिर्गता
निर्भिन्नमूर्धोरुभुजा: प्रदुद्रुवु: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
जिघृक्षया—दबोच लेने के लिए; तान्—उनको; परित:—चारों ओर से; प्रसर्पत:—पास आकर; शुन:—कुत्ते; यथा—जिस प्रकार; शूकर—सुअरों के; यूथ—झुंड का; प:—नायक, अगुआ; अहनत्—उसने प्रहार किया; ते—वे; हन्यमाना:—प्रहार किये गये; भवनात्—महल से; विनिर्गता:—बाहर चले गये; निर्भिन्न—टूटे हुए; मूर्ध—सिर; ऊरु—जाँघें; भुजा:—तथा भुजाएँ; प्रदुद्रुवु:—वे भाग गये ।.
 
अनुवाद
 
 जब रक्षकगण उसे पकडऩे के प्रयास में चारों ओर से उसकी ओर टूट पड़े तो अनिरुद्ध ने उन पर उसी तरह वार किया जिस तरह कुत्तों पर सूअरों का झुंड मुड़ कर प्रहार करता है। उसके वारों से आहत रक्षकगण महल से अपनी जान बचाकर भाग गये। उनके सिर, जाँघें तथा बाहुएँ टूट गई थीं।
 
 
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