शङ्करानुचरान् शौरिर्भूतप्रमथगुह्यकान् ।
डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान् सविनायकान् ॥ १० ॥
प्रेतमातृपिशाचांश्च कुष्माण्डान् ब्रह्मराक्षसान् ।
द्रावयामास तीक्ष्णाग्रै: शरै: शार्ङ्गधनुश्च्युतै: ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
शङ्कर—शंकर के; अनुचरान्—अनुयायी; शौरि:—भगवान् कृष्ण ने; भूत-प्रमथ—भूतों तथा प्रमथगणों; गुह्यकान्—गुह्यकजन (कुवेर के सेवक जो स्वर्ग के कोष की रक्षा करते हैं); डाकिनी:—देवी काली की सेवा करने वाली असुरिनियों; यातुधानान्— मनुष्यों को खा जाने वाले असुर, जो राक्षस भी कहे जाते हैं; च—तथा; वेतालान्—वेतालों को; स-विनायकान्—विनायकों समेत; प्रेत—प्रेतगणों; मातृ—मातृपक्ष के असुरों; पिशाचान्—अन्तरिक्ष में रहने वाले मांस-भक्षी असुरों; च—भी; कुष्माण्डान्—शिव के अनुयायियों को जो योगियों के ध्यान को भंग करते रहते हैं; ब्रह्म-राक्षसान्—उन ब्राह्मणों की आसुरी आत्माएँ जिनकी मृत्यु पाप-कृत्यों से हुई है; द्रावयाम् आस—भगा दिया; तीक्ष्ण-अग्रै:—तेज नोक वाले; शरै:—बाणों से; शार्ङ्ग-धनु:—शार्ङ्ग नामक धनुष से; च्युतै:—छोड़े गये ।.
अनुवाद
अपने शार्ङ्ग धनुष से तेज नोक वाले बाणों को छोड़ते हुए भगवान् कृष्ण ने शिवजी के विविध अनुचरों—भूतों, प्रमथों, गुह्यकों, डाकिनियों, यातुधानों, वेतालों, विनायकों, प्रेतों, माताओं, पिशाचों, कुष्माण्डों तथा ब्रह्म-राक्षसों—को भगा दिया।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥