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श्लोक |
धनूंष्याकृष्य युगपद् बाण: पञ्चशतानि वै ।
एकैकस्मिन् शरौ द्वौ द्वौ सन्दधे रणदुर्मद: ॥ १८ ॥ |
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शब्दार्थ |
धनूंषि—धनुषों को; आकृष्य—खींचकर; युगपत्—एकसाथ; बाण:—बाण ने; पञ्च-शतानि—पाँच सौ; वै—निस्सन्देह; एक- एकस्मिन्—हर एक पर; शरौ—तीर; द्वौ द्वौ—दो दो; सन्दधे—चढ़ाया; रण—युद्ध के कारण; दुर्मद:—घमंड से मतवाला ।. |
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अनुवाद |
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युद्ध करने की सनक में बहकर बाण ने एकसाथ अपने पाँच सौ धनुषों की डोरियाँ खींच कर हर डोरी पर दो दो बाण चढ़ाये। |
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