श्रील जीव गोस्वामी आद्य: पुरुष: की व्याख्या करते हुए सात्वत तन्त्र से यह उद्धरण देते हैं— विष्णोस्तु त्रीणिरूपाणि—विष्णु के तीन रूप हैं। श्रील जीव गोस्वामी भी श्रुति से भगवान् का वचन उद्धृत करते हैं—पूर्वमेवाहमिहासम्—प्रारम्भ में इस जगत में केवल मैं था। यह कथन पुरुष अवतार को बताने वाला है, जो विराट जगत के पहले स्थित था। श्रील जीव गोस्वामी ने एक श्रुति मंत्र भी— तत्पुरुषस्य पुरुषत्वम्—भगवान् का पुरुष पद ऐसा है—उद्धृत किया है। वस्तुत: भगवान् कृष्ण पुरुष अवतार के सार हैं क्योंकि वे तुरीय हैं जैसाकि इस श्लोक में वर्णित है। जीव गोस्वामी ने तुरीय (शाब्दिक अर्थ चतुर्थ) शब्द की व्याख्या श्रीमद्भागवत के श्लोक (११.१५.१६) पर श्रील श्रीधर स्वामी की टीका से उद्धरण देते हुए की है। विराट् हिरण्यगर्भश्च कारणं चेत्युपाधय:। ईशस्य यत्त्रिभिर्हीनं तुरीयं तद् विदुर्बुधा: ॥ “भगवान् का विराट रूप, उनका हिरण्यगर्भ रूप तथा भौतिक प्रकृति का आदि हेतु रूप—ये सभी सापेक्ष विचार हैं किन्तु क्योंकि भगवान् इन तीनों द्वारा आच्छादित नहीं होते अत: बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें “चौथा” कहते हैं।” श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार तुरीय शब्द सूचक है कि भगवान् चतुर्व्यूह नामक अपने चौरंगी विस्तार के चौथे सदस्य हैं। दूसरे शब्दों में, भगवान् कृष्ण वासुदेव हैं। भगवान् कृष्ण स्व-दृक् अर्थात् केवल अपने को ठीक से देख सकने वाले हैं क्योंकि उनका अस्तित्व आध्यात्मिक है और वे अतीव शुद्ध हैं। वे हेतु अर्थात् हर वस्तु के कारणस्वरूप हैं फिर भी अहेतु हैं अर्थात् कारणरहित हैं। इसीलिए वे ईश अर्थात् परम नियन्ता हैं। इस श्लोक की अन्तिम दो पंक्तियाँ विशिष्ट दार्शनिक महत्त्व रखती हैं। जब ईश्वर एक हैं, तो फिर विभिन्न लोग उनको भिन्न भिन्न प्रकार से क्यों देखते हैं? इसकी आंशिक व्याख्या यहाँ दी गई है। भगवान् की बहिरंगा शक्ति, माया के कारण भौतिक प्रकृति निरन्तर विकार अवस्था में रहती है। तब तो एक अर्थ से भौतिक प्रकृति असत् अर्थात् असल नहीं है। किन्तु ईश्वर परम सत्य हैं और वे सारी वस्तुओं के भीतर हैं तथा सारी वस्तुएँ उनकी शक्ति हैं अत: भौतिक वस्तुओं तथा शक्तियों में कुछ सच्चाई रहती है। इसलिए कुछ लोग भौतिक शक्ति के एक पक्ष को देखते हैं और सोचते हैं, “यह सत्य है” जबकि अन्य लोग दूसरे पक्ष को देखते हैं और सोचते हैं, “नहीं, सत्य यह है।” बद्धजीव होने के कारण हम सभी भौतिक प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों से आवृत हैं इसीलिए हम परम सत्य या परमेश्वर का वर्णन अपनी दूषित दृष्टि के अनुसार करते हैं। फिर भी भौतिक प्रकृति के आच्छादक गुण—यथा हमारी बद्ध बुद्धि, मन तथा इन्द्रियाँ—असल हैं (भगवान् की शक्ति होने के कारण) इसीलिए सारी वस्तुओं के भीतर से हम भगवान् को थोड़ा-बहुत व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से देख सकते हैं। इसीलिए इस श्लोक में प्रतीयसे अर्थात् “आप देखे जाते हैं” आया है। यही नहीं, भौतिक प्रकृति के आच्छादक गुणों की अभिव्यक्ति के बिना सृष्टि का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता, यह उद्देश्य है बद्धजीवों को भगवान् के बिना, भोग करने का अत्यधिक प्रयास करने देना जिससे कि वे अन्तत: ऐसे भ्रामक विचार की व्यर्थता को समझ सकें। |