यथैव सूर्य: पिहितश्छायया स्वया
छायां च रूपाणि च सञ्चकास्ति ।
एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्व-
मात्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन् ॥ ३९ ॥
शब्दार्थ
यथा एव—जिस तरह; सूर्य:—सूर्य; पिहित:—ढका; छायया—छाया से; स्वया—अपनी; छायाम्—छाया को; च—तथा; रूपाणि—दृश्य रूप; च—भी; सञ्चकास्ति—प्रकाशित करता है; एवम्—उसी तरह से; गुणेन—भौतिक गुण (मिथ्या अहंकार का) द्वारा; अपिहित:—ढका हुआ; गुणान्—पदार्थ के गुणों के; त्वम्—तुम; आत्म-प्रदीप:—स्वयं प्रकाशित; गुणिन:—इन गुणों का स्वामी (जीव); च—तथा; भूमन्—हे सर्वशक्तिमान ।.
अनुवाद
हे सर्वशक्तिमान, जिस प्रकार सूर्य बादल से ढका होने पर भी बादल को तथा अन्य सारे दृश्य रूपों को भी प्रकाशित करता है उसी तरह आप भौतिक गुणों से ढके रहने पर भी स्वयं प्रकाशित बने रहते हैं और उन सारे गुणों को, उन गुणों से युक्त जीवों समेत, प्रकट करते हैं।
तात्पर्य
यहाँ पर शिवजी पिछले श्लोक की अन्तिम दो पंक्तियों में व्यक्त विचार को और अधिक स्पष्ट करते हैं। बादल तथा सूर्य का दृष्टान्त उपयुक्त है। सूर्य अपनी शक्ति से बादल उत्पन्न करता है, जो सूर्य को हमारी दृष्टि से ओझल बनाता है। फिर भी सूर्य ही बादल को तथा उसी के साथ अन्य सारी वस्तुओं को हमारे लिए दृश्य बनाता
है। इसी प्रकार भगवान् अपनी माया का विस्तार करते हैं और हमें सीधे अपना दर्शन करने से रोकते हैं। तो भी ईश्वर ही अकेले ऐसे हैं, जो अपनी आच्छादक शक्ति— भौतिक जगत—को हमारे समक्ष प्रकट करते हैं। इस तरह भगवान् आत्म-प्रदीप—स्वयं प्रकाशित—हैं। उनके अस्तित्व की सच्चाई से ही सारी वस्तुएँ दृश्य बनती हैं।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥