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श्लोक 10.64.12  |
यावत्य: सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारका: ।
यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददं स्म गा: ॥ १२ ॥ |
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शब्दार्थ |
यावत्य:—जितने; सिकता:—बालू के कण; भूमे:—पृथ्वी से सम्बन्धित; यावत्य:—जितने; दिवि—आकाश में; तारका:— तारे; यावत्य:—जितनी; वर्ष—वर्षा की; धारा:—बूँदें; च—तथा; तावती:—उतनी ही; अददम्—मैंने दीं; स्म—निस्सन्देह; गा:—गौवें ।. |
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अनुवाद |
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मैंने दान में उतनी ही गौवें दीं जितने कि पृथ्वी पर बालू के कण हैं, आकाश में तारे हैं या वर्षा की बूँदें होती हैं। |
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तात्पर्य |
भाव यह है कि राजा ने दान में असंख्य गौवें दीं। |
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