इस श्लोक पर श्रील जीव गोस्वामी की टीका इस प्रकार है “चूँकि राजा नृग ने खुले रूप से कह दिया कि उसमें दो अद्वितीय गुण थे—ब्राह्मण भक्ति तथा वदान्यता—अत: स्पष्ट है कि उसमें ये गुण अंशरूप में ही थे क्योंकि जो सचमुच शुद्ध होगा वह उनके बारे में कभी भी डींग नहीं हाँकेगा। यह भी स्पष्ट है कि राजा नृग ने ऐसे पुण्य को पुण्य के लिए ही पृथक् लक्ष्य समझा। इस तरह उसे भगवान् कृष्ण की शुद्ध भक्ति का पूरी तरह बोध नहीं हो सका। कृष्ण उसके जीवन के एकमात्र लक्ष्य नहीं थे जैसाकि अम्बरीष महाराज के नियमित अभ्यास की स्थिति में भी वे थे। न ही राजा नृग ने अम्बरीष महाराज की तरह किसी बाधा पर विजय प्राप्त की जब उन पर दुर्वासा मुनि कुपित हो गये थे। फिर भी हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि चूँकि नृग किसी न किसी कारणवश भगवान् का दर्शन कर सका अत: उसमें भगवान् की संगति पाने की सच्ची इच्छा का सद्गुण अवश्य रहा होगा।” श्रील प्रभुपाद ने भगवान् कृष्ण में उपर्युक्त विश्लेषण की पुष्टि की है “कुल मिलाकर वह (नृग) कृष्णभावनामृत विकसित नहीं कर पाया था। कृष्णभावना-भावित व्यक्ति ईश्वर या कृष्ण के लिए प्रेम उत्पन्न करता है, शुभ या अशुभ कर्मों के लिए नहीं। इसलिए उसे ऐसे कर्म का फल नहीं मिलता। जैसाकि ब्रह्म संहिता में कहा गया है कि भक्त, भगवान् की कृपा से, कभी भी सकाम कर्मों के फल नहीं भोगता।”
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ने निम्नलिखित टीका की है—“जब नृग ने ‘आपके दर्शन के लिए लालायित’ कहा तो वह किसी ऐसी घटना का उल्लेख कर रहा था जिसमें एक बार उसकी भेंट किसी महान् भक्त से हुई थी। यह भक्त भगवान् के सर्वोत्तम अर्चाविग्रह के लिए मन्दिर प्राप्त करने का इच्छुक था और वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे शास्त्रों की प्रतियाँ भी प्राप्त करना चाहता था। अतीव उदार होने के कारण नृग ने इन वस्तुओं का प्रबन्ध कर दिया। इससे भक्त इतना प्रसन्न हुआ कि उसने राजा को आशीर्वाद दिया, “हे राजन्! आपको भगवान् के दर्शन हों।” तभी से नृग भगवान् का दर्शन करना चाह रहा था।