श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 64: राजा नृग का उद्धार  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  10.64.26 
स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथ: परात्मा
योगेश्वरै: श्रुतिद‍ृशामलहृद्विभाव्य: ।
साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धे:
स्यान्मेऽनुद‍ृश्य इह यस्य भवापवर्ग: ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; त्वम्—तुम; कथम्—कैसे; मम—मेरा; विभो—हे सर्वशक्तिमान; अक्षि-पथ:—दृष्टिगोचर; पर-आत्मा—परमात्मा; योग—योग के; ईश्वरै:—स्वामियों द्वारा; श्रुति—श्रुतियों की; दृशा—आँखों के द्वारा; अमल—निर्मल; हृत्—उनके हृदयों के भीतर; विभाव्य:—ध्यान किये जाने योग्य; साक्षात्—प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर; अधोक्षज—हे दिव्य प्रभु, जो इन्द्रियों से नहीं देखे जा सकते; उरु—कठिन; व्यसन—कष्टों द्वारा; अन्ध—अन्धा; बुद्धे:—बुद्धिवाला; स्यात्—शायद हो; मे—मेरे लिए; अनुदृश्य:— देखे जाने योग्य; इह—इस जगत में; यस्य—जिसका; भव—भौतिक जीवन का; अपवर्ग:—अन्त ।.
 
अनुवाद
 
 हे विभु! मैं आपको अपने समक्ष कैसे देख पा रहा हूँ? आप तो परमात्मा हैं जिस पर बड़े से बड़े योगेश्वर केवल वेद रूपी दिव्य आँख के द्वारा अपने शुद्ध हृदयों के भीतर ध्यान लगा सकते हैं। तो हे दिव्य प्रभु, आप किस तरह मुझे प्रत्यक्ष दिख रहे हैं क्योंकि मेरी बुद्धि भौतिक जीवन के कठिन कष्टों से अन्धी हो चुकी है? जिसने इस जगत के भव-बन्धनों को समाप्त कर दिया है, वही आपको देख सकता है।
 
तात्पर्य
 छिपकली का शरीर होते हुए भी राजा नृग को अपना पूर्व-जन्म स्मरण था। और अब जब उसे भगवान् का दर्शन करने का अवसर मिला तो वह यह समझ सकता था कि उसे भगवान् की विशेष कृपा प्राप्त हुई है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥