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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 64: राजा नृग का उद्धार  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  10.64.29 
नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।
कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नम: ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
नम:—नमस्कार; ते—आपको; सर्व-भावाय—समस्त प्राणियों के स्रोत; ब्रह्मणे—परम सत्य को; अनन्त—असीम; शक्तये— शक्ति वाले; कृष्णाय—कृष्ण को; वासुदेवाय—वसुदेव के पुत्र; योगानाम्—योग की समस्त विधियों के; पतये—स्वामी को; नम:—नमस्कार ।.
 
अनुवाद
 
 हे वसुदेवपुत्र कृष्ण, मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ आप समस्तजीवों के उद्गम हैं, परम सत्य हैं, अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं और समस्त आध्यात्मिक प्रवर्गों के स्वामी हैं।
 
तात्पर्य
 श्रील श्रीधरस्वामी की टीका है कि यहाँ पर राजा नृग ब्रह्म को नमस्कार करता है—

अर्थात् उस परम सत्य को जो कर्म करते हुए भी अपरिवर्तित रहते हैं प्राचीन काल से ही पाश्चात्य दार्शनिक इस प्रश्न को लेकर उलझ रहे हैं कि ईश्वर किस तरह अपरिवर्तित रहते हुए भी कर्म कर सकता है श्रील श्रीधर स्वामी कहते हैं कि इस शंका का समाधान अनन्त शक्तये शब्द से हो जाता है, जो यह बतलाता है कि ईश्वर “असीम शक्ति के स्वामी” हैं इस तरह वे अनन्त शक्तियों के द्वारा, अपनी अनिवार्य प्रकृति को बदले बिना ही, असंख्य कर्म कर सकते हैं।

राजा नृग नित्य आनन्द स्वरूप और जीवन के चरम-लक्ष्य श्रीकृष्ण को पुन: नमस्कार करता है कृष्ण के पवित्र नाम का विश्लेषण महाभारत के एक श्लोक (उद्योग पर्व ७१.४) में हुआ है, जिसे श्रील प्रभुपाद ने चैतन्य चरितामृत (मध्य ९.३० तात्पर्य) में उद्धृत किया है— कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्च निर्वृतिवाचक:।

तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥

कृष् शब्द भगवान् का आकर्षक स्वरूप है और ण का अर्थ है “आध्यात्मिक आनन्द” जब कृष् क्रिया ण से मिलती है, तो कृष्ण बनता है, जो परब्रह्म का सूचक है।

राजा नृग उपर्युक्त स्तुति तब करता है जब वह भगवान् की संगति छोडक़र जाने वाला होता है।

 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥