श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 64: राजा नृग का उद्धार  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  10.64.34 
हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भ‍ि: प्रशाम्यति ।
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावक: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
हिनस्ति—नष्ट करता है; विषम्—विष को; अत्तारम्—निगलने वाले को; वह्नि:—अग्नि; अद्भि:—जल से; प्रशाम्यति—बुझाई जाती है; कुलम्—परिवार को; स-मूलम्—जड़ समेत; दहति—जलाती है; ब्रह्म-स्व—ब्राह्मण की सम्पत्ति; अरणि—आग जलाने वाला काष्ठ; पावक:—अग्नि ।.
 
अनुवाद
 
 विष केवल उसी को मारता है, जो उसे निगलता है और सामान्य अग्नि को पानी से बुझाया जा सकता है किन्तु ब्राह्मण की सम्पत्ति रूपी अरणि से उत्पन्न अग्नि चोर के समस्त परिवार को समूल नष्ट कर देती है।
 
तात्पर्य
 श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ब्राह्मण की सम्पत्ति की चोरी से उत्पन्न अग्नि की तुलना उस अग्नि से करते हैं, जो पुराने वृक्ष के कोटर के भीतर जलती है ऐसी अग्नि को अनेक बार होने वाली वर्षा का जल भी नहीं बुझा पाता—यह भीतर ही भीतर पूरे वृक्ष को—भूमि के भीतर जड़ों तक जला डालती है इसी प्रकार ब्राह्मण की सम्पत्ति के चुराने से उत्पन्न अग्नि अत्यन्त भयानक होती है और यथासम्भव किसी भी तरह से इससे बचना चाहिए
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥