श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 64: राजा नृग का उद्धार  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  10.64.35 
ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम् ।
प्रसह्य तु बलाद् भुक्तं दश पूर्वान् दशापरान् ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्म-स्वम्—ब्राह्मण की सम्पत्ति; दुरनुज्ञातम्—समुचित अनुमति न दिये जाने पर; भुक्तम्—भोगी गई; हन्ति—विनष्ट करती है; त्रि—तीन; पूरुषम्—व्यक्तियों को; प्रसह्य—बलपूर्वक; तु—लेकिन; बलात्—बाह्य शक्ति (सरकारी इत्यादि) का प्रयोग करने से; भुक्तम्—भोगी गई; दश—दस; पूर्वान्—पहले के; दश—दस; अपरान्—बाद के ।.
 
अनुवाद
 
 यदि कोई व्यक्ति बिना उचित अनुमति के ब्राह्मण की सम्पत्ति का भोग करता है, तो वह सम्पत्ति उस व्यक्ति की तीन पीढिय़ों तक को नष्ट कर देती है। किन्तु यदि वह इसे बलपूर्वक या राजकीय अथवा किसी बाहरी सहायता से छीन लेता है, तो उसके पूर्वजों की दस पीढिय़ाँ तथा उसके उत्तराधिकारियों की दस पीढिय़ाँ विनष्ट हो जाती हैं।
 
तात्पर्य
 श्रील श्रीधर स्वामी के अनुसार त्रि-पूरुष द्योतक है अपना, अपने पुत्रों तथा अपने पौत्रों का
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥