|
|
|
श्लोक 10.64.39  |
स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च य: ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमि: ॥ ३९ ॥ |
|
शब्दार्थ |
स्व—अपने द्वारा; दत्ताम्—दिया गया; पर—दूसरे के द्वारा; दत्ताम्—दिया गया; वा—अथवा; ब्रह्म-वृत्तिम्—ब्राह्मण की सम्पत्ति; हरेत्—चुराता है; च—तथा; य:—जो; षष्टि—साठ; वर्ष—वर्षों तक; सहस्राणि—हजारों; विष्ठायाम्—मल में; जायते—उत्पन्न होता है; कृमि:—कीट ।. |
|
अनुवाद |
|
चाहे अपना दिया दान हो या किसी अन्य का, जो व्यक्ति किसी ब्राह्मण की सम्पत्ति को चुराता है, वह साठ हजार वर्षों तक मल में कीट के रूप में जन्म लेगा |
|
|
|
शेयर करें
 |