चर्मजैस्तान्तवै: पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भका: ।
नाशक्नुरन् समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुका: ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
चर्म-जै:—चमड़े की बनी; तान्तवै:—तथा काते सूत की बनी; पाशै:—रस्सियों से; बद्ध्वा—बाँधकर; पतितम्—गिरे हुए जीव को; अर्भका:—लडक़े; न अशक्नुरन्—समर्थ नहीं हो सके; समुद्धर्तुम्—बाहर निकालने में; कृष्णाय—कृष्ण को; आचख्यु:—सूचना दी; उत्सुका:—उत्तेजित ।.
अनुवाद
उन्होंने वहाँ फँसी उस छिपकली को चमड़े की पट्टियों तथा सूत की रस्सियों से पकड़ा किन्तु फिर भी वे उसे बाहर नहीं निकाल सके। अत: वे कृष्ण के पास गये और उत्तेजित होकर उनसे उस जीव के विषय में बतलाया।
तात्पर्य
श्रील जीव गोस्वामी कहते हैं कि इस अध्याय में यदुबालकों को, यहाँ तक कि श्री प्रद्युम्न को कम आयु का बतलाया गया है, अत: यह अवश्य कोई प्रारम्भिक लीला होगी।
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