विप्रम्—विद्वान ब्राह्मण के प्रति; कृत—किया गया; आगसम्—पाप; अपि—भी; न—नहीं; एव—निस्सन्देह; द्रुह्यत—शत्रु की तरह व्यवहार करते हैं; मामका:—हे मेरे अनुयायियो; घ्नन्तम्—शारीरिक प्रहार करते हुए; बहु—बारम्बार; शपन्तम्—शाप देते हुए; वा—अथवा; नम:-कुरुत—तुम्हें नमस्कार करना चाहिए; नित्यश:—सदैव ।.
अनुवाद
हे मेरे अनुयायियो, तुम कभी भी विद्वान ब्राह्मण के साथ कठोर व्यवहार न करो, भले ही उसने पाप क्यों न किये हों। यदि वह तुम्हारे शरीर पर वार भी करे या बारम्बार तुम्हें शाप दे तो भी उसे नमस्कार करते रहो
तात्पर्य
भगवान् कृष्ण यह उपदेश न केवल अपने निजी संगियों को देते हैं अपितु उन सबों को भी देते हैं, जो अपने को भगवान् के अनुयायी होने का दावा करते हैं।
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