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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 67: बलराम द्वारा द्विविद वानर का वध  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में बतलाया गया है कि बलराम ने किस तरह रैवतक पर्वत में व्रज की तरुणियों के साथ रमण किया और वहाँ द्विविद नामक वानर का वध किया। नरकासुर राक्षस का जिसका...
 
श्लोक 1:  यशस्वी राजा परीक्षित ने कहा : मैं अनन्त तथा अपार भगवान् श्रीबलराम के विषय में और आगे सुनना चाहता हूँ जिनके कार्यकलाप अतीव विस्मयकारी हैं। उन्होंने और क्या किया?
 
श्लोक 2:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : द्विविद नाम का एक वानर था, जो नरकासुर का मित्र था। यह शक्तिशाली द्विविद मैन्द का भाई था और राजा सुग्रीव ने उसे आदेश दिया था।
 
श्लोक 3:  अपने मित्र (नरक) की मृत्यु का बदला लेने के लिए द्विविद वानर ने नगरों, गाँवों, खानों तथा ग्वालों की बस्तियों में आग लगाते हुए उन्हें जलाकर पृथ्वी को तहस-नहस कर दिया।
 
श्लोक 4:  एक बार द्विविद ने अनेक पर्वतों को उखाड़ लिया और उनका प्रयोग सभी निकटवर्ती राज्यों को, विशेषतया आनर्त प्रदेश को विध्वंस करने के लिए किया जहाँ उसके मित्र को मारने वाले, भगवान् हरि रहते थे।
 
श्लोक 5:  दूसरे अवसर पर वह समुद्र में घुस गया और दस हजार हाथियों के बल के बराबर अपनी बाहों से उसके पानी को मथ डाला और इस तरह समुद्रतट के भागों को डुबो दिया।
 
श्लोक 6:  उस दुष्ट वानर ने प्रमुख ऋषियों के आश्रमों के वृक्षों को तहस-नहस कर डाला और अपने मल-मूत्र से यज्ञ की अग्नियों को दूषित कर दिया।
 
श्लोक 7:  जिस तरह भिड़-कीट छोटे छोटे कीड़ों को बन्दी बना लेता है, उसी तरह उसने ढिठाई करके पुरुषों तथा स्त्रियों को पर्वत की घाटी में गुफाओं के भीतर डाल कर इन गुफाओं को बड़े बड़े शिलाखण्डों से बन्द कर दिया।
 
श्लोक 8:  एक बार जब द्विविद निकटवर्ती राज्यों को तंग करने तथा कुलीन स्त्रियों को दूषित करने में इस तरह लगा हुआ था, तो उसने रैवतक पर्वत से आती हुई अत्यन्त मधुर गायन की आवाज सुनी। अतएव वह वहाँ जा पहुँचा।
 
श्लोक 9-10:  वहाँ उसने यदुओं के स्वामी श्री बलराम को देखा जो कमल-पुष्पों की माला से सुशोभित थे और जिनका हर अंग अत्यन्त आकर्षक लग रहा था। वे युवतियों के मध्य गा रहे थे और चूँकि उन्होंने वारुणी मदिरा पी रखी थी अतएव उनकी आँखें इस तरह घूम रही थीं मानो वे नशे में हों। उनका शरीर चमचमा रहा था और वे कामोन्मत्त हाथी की तरह व्यवहार कर रहे थे।
 
श्लोक 11:  वह दुष्ट वानर वृक्ष की शाखा पर चढ़ गया और वृक्षों को हिलाकर तथा किलकारियाँ मारते हुए अपनी उपस्थिति जताने लगा।
 
श्लोक 12:  जब बलदेव की प्रेयसियों ने वानर की ढिठाई देखी तो वे हँसने लगीं। आखिर वे तरुणियाँ थीं, जिन्हें हँसी-मजाक भाता था और वे चपल थीं।
 
श्लोक 13:  बलराम के देखते हुए भी द्विविद ने उन तरुणियों को अपनी भौंहों से गंदे इशारे करते हुए, उनके सामने आकर खड़े होकर और उन्हें अपनी गुदा (मलद्वार) दिखलाकर अपमानित किया।
 
श्लोक 14-15:  सर्वश्रेष्ठ योद्धा बलराम ने क्रुद्ध होकर उस पर एक शिला फेंकी किन्तु उस धूर्त वानर ने अपने को उस शिला से बचा कर बलराम के शराब के पात्र को उड़ा ले गया। दुष्ट द्विविद ने बलराम की हँसी उड़ाते हुए उन्हें और अधिक क्रुद्ध करके उस पात्र को तोड़ डाला और तरुणियों के वस्त्र खींच कर बलराम को और भी अधिक अपमानित किया। इस तरह मिथ्या गर्व से फूलकर कुप्पा हुआ बलशाली वानर श्री बलराम का अपमान करता रहा।
 
श्लोक 16:  भगवान् बलराम ने उस वानर के ढीठ आचरण को देखा और आसपास के राज्यों में उसके द्वारा उत्पन्न विनाश-लीला (उपद्रव) का विचार किया। इस तरह बलराम ने क्रुद्ध होकर अपने शत्रु का अन्त करने का निश्चय करके अपनी गदा तथा अपना हल उठा लिया।
 
श्लोक 17:  बलशाली द्विविद भी युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। एक हाथ से शाल का वृक्ष उखाड़ कर वह बलराम की ओर दौड़ा और उनके सिर पर उस वृक्ष के तने से प्रहार किया।
 
श्लोक 18:  किन्तु भगवान् संकर्षण पर्वत की तरह अचल बने रहे और अपने सिर के ऊपर गिरते हुए लट्ठे को यों ही दबोच लिया। तब उन्होंने द्विविद पर अपनी सुनन्द गदा से प्रहार किया।
 
श्लोक 19-21:  खोपड़ी पर भगवान् की गदा से चोट खाकर द्विविद रक्त की धार बहने से उसी तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कोई पर्वत गेरू से सुन्दर लगने लगता है। उसने घाव की परवाह न करके दूसरा वृक्ष उखाड़ा, बलपूर्वक उसकी पत्तियाँ विलग कीं और पुन: भगवान् पर प्रहार किया। अब बलराम ने क्रुद्ध होकर वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर डाले। इस पर द्विविद ने दूसरा वृक्ष हाथ में लिया और फिर से बहुत ही रोषपूर्वक भगवान् पर प्रहार किया। भगवान् ने इस वृक्ष के भी सैकड़ों खण्ड कर डाले।
 
श्लोक 22:  इस तरह भगवान् से युद्ध करते द्विविद जिस भी वृक्ष से भगवान् पर प्रहार करता उसके बारम्बार विनष्ट हो जाने पर वह चारों ओर से तब तक वृक्ष उखाड़ता रहा जब तक कि जंगल वृक्षविहीन नहीं हो गया।
 
श्लोक 23:  तत्पश्चात् क्रुद्ध वानर ने बलराम पर पत्थरों की वर्षा की किन्तु उस गदाधारी ने उन सबों को चकनाचूर कर डाला।
 
श्लोक 24:  सर्वाधिक शक्तिशाली वानर द्विविद अब ताड़-वृक्ष जैसे आकार वाली भुजाओं के सिरे पर मुक्के बाँध कर बलराम के समक्ष आया और उनके शरीर पर अपने मुक्के मारे।
 
श्लोक 25:  तत्पश्चात् क्रुद्ध यादवेन्द्र ने अपनी गदा और हल को एक ओर फेंक दिया और अपने खाली हाथों से द्विविद की हँसली पर जोर का प्रहार किया। वह वानर रक्त वमन करता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।
 
श्लोक 26:  हे कुरु-शार्दूल, जब वह गिरा तो रैवतक पर्वत अपनी चोटियों तथा वृक्षों समेत हिल उठा मानो समुद्र में वायु द्वारा हिलाई गई कोई नाव हो।
 
श्लोक 27:  स्वर्ग में देवता, सिद्धगण तथा मुनिगण निनाद करने लगे, “आपकी जय हो, आपको नमस्कार है, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा हुआ!” और भगवान् पर फूल बरसाने लगे।
 
श्लोक 28:  सारे संसार में उपद्रव मचाने वाले द्विविद को इस तरह मार कर भगवान् अपनी राजधानी लौट आये और लोगों ने रास्ते में उनका यशोगान किया।
 
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