श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 67: बलराम द्वारा द्विविद वानर का वध  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  10.67.2 
श्रीशुक उवाच
नरकस्य सखा कश्चिद् द्विविदो नाम वानर: ।
सुग्रीवसचिव: सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान् ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नरकस्य—नरकासुर का; सखा—मित्र; कश्चित्—कोई; द्विविद:—द्विविद; नाम—नामक; वानर:—वानर; सुग्रीव—राजा सुग्रीव; सचिव:—जिसका सलाहकार; स:—वह; अथ—भी; भ्राता—भाई; मैन्दस्य—मैन्द का; वीर्य-वान्—शक्तिशाली ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : द्विविद नाम का एक वानर था, जो नरकासुर का मित्र था। यह शक्तिशाली द्विविद मैन्द का भाई था और राजा सुग्रीव ने उसे आदेश दिया था।
 
तात्पर्य
 श्रील जीव गोस्वामी ने द्विविद वानर के विषय में कुछ रोचक बातों का संकेत किया है। यद्यपि द्विविद भगवान् रामचन्द्र का संगी था किन्तु बाद में नरकासुर की कुसंगति से वह दूषित हो गया जैसाकि यहाँ पर कहा गया है—नरकस्य सखा। यह कुसंगति द्विविद के उस अपराध का फल थी जो उसने अपने बल के कारण गर्वित होकर श्रीरामचन्द्र के भाई लक्ष्मण तथा अन्यों का अनादर करके किया था। जो लोग भगवान् रामचन्द्र की पूजा करते हैं, वे कभी कभी मैन्द और द्विविद की स्तुति भगवान् के सेवक-विग्रहों के रूप में करते हैं। श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार इस श्लोक में वर्णित मैंद तथा द्विविद इन्हीं विग्रहों के मान्यताप्राप्त अंश हैं, जो भगवान् रामचन्द्र के वैकुण्ठधाम के वासी हैं।

श्रील जीव गोस्वामी के इस मत से श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर सहमत हैं कि द्विविद कुसंगति से दूषित हो गया था, जो श्रीमान् लक्ष्मण के प्रति अनादर व्यक्त करने का दण्ड था। किन्तु विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि यहाँ पर उल्लिखित मैंद तथा द्विविद वास्तव में नित्यमुक्त भक्त थे जिन्हें रामचन्द्रजी की पूजा के समय सेवक विग्रह कह कर पुकारा जाता है। भगवान् ने उनका पतन कुसंगति का दुष्परिणाम, जो महापुरुषों को अपमानित करने से प्राप्त होता है, दिखाने के लिए किया। इस प्रकार श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती द्विविद तथा मैंद के पतन की तुलना जय तथा विजय के पतन से करते हैं।

 
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