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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 67: बलराम द्वारा द्विविद वानर का वध  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  10.67.25 
यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुषललाङ्गले ।
जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्ध: सोऽपतद् रुधिरं वमन् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
यादव-इन्द्र:—यादवों के प्रभु, बलराम ने; अपि—भी; तम्—उसको; दोर्भ्याम्—अपने हाथों से; त्यक्त्वा—एक ओर फेंक कर; मुषल-लाङ्गले—गदा तथा हल; जत्रौ—हँसली पर; अभ्यर्दयत्—जोर का प्रहार किया; क्रुद्ध:—क्रुद्ध; स:—वह, द्विविद; अपतत्—गिर पड़ा; रुधिरम्—रक्त; वमन्—वमन करता हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् क्रुद्ध यादवेन्द्र ने अपनी गदा और हल को एक ओर फेंक दिया और अपने खाली हाथों से द्विविद की हँसली पर जोर का प्रहार किया। वह वानर रक्त वमन करता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।
 
तात्पर्य
 लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण में श्रील प्रभुपाद ने लिखा है : “इस बार बलरामजी अत्यन्त क्रोधित हो उठे। क्योंकि वानर उन पर हाथों से प्रहार कर रहा था अतएव बलरामजी ने भी उस पर अपनी गदा या हल से प्रहार नहीं किया। वे केवल मुक्के से वानर की हँसली (गले के पास की हड्डी) पर प्रहार करने लगे। यह प्रहार द्विविद के लिए प्राणान्तक सिद्ध हुआ।”
 
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