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श्लोक 10.67.6  |
आश्रमानृषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन् ।
अदूषयच्छकृन्मूत्रैरग्नीन् वैतानिकान् खल: ॥ ६ ॥ |
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शब्दार्थ |
आश्रमान्—आश्रमों को; ऋषि—ऋषियों के; मुख्यानाम्—प्रमुख; कृत्वा—करके; भग्न—तोड़-फोड़; वनस्पतीन्—वृक्षों को; अदूषयत्—दूषित कर डाला; शकृत्—मल से; मूत्रै:—मूत्र से; अग्नीन्—अग्नियों को; वैतानिकान्—यज्ञ की; खल:—दुष्ट ने ।. |
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अनुवाद |
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उस दुष्ट वानर ने प्रमुख ऋषियों के आश्रमों के वृक्षों को तहस-नहस कर डाला और अपने मल-मूत्र से यज्ञ की अग्नियों को दूषित कर दिया। |
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