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अध्याय 68: साम्ब का विवाह
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि कौरवों ने किस तरह साम्ब को बन्दी बनाया और बलदेव ने किस तरह उसे छुड़ाने के लिए हस्तिनापुर नगरी को खींच डाला।
जाम्बवती का प्रिय पुत्र... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, जाम्बवती के पुत्र साम्ब ने जो सदैव युद्ध में विजयी होता था, दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का उसके स्वयंवर समारोह से अपहरण कर लिया। |
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श्लोक 2: क्रुद्ध कौरवों ने कहा : इस बुरे आचरण वाले बालक ने हमारी अविवाहिता कन्या को उसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक हर कर हमारा अपमान किया है। |
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श्लोक 3: बुरे आचरण वाले इस साम्ब को बन्दी बना लो। आखिर वृष्णिजन हमारा क्या कर लेंगे? वे हमारी ही कृपा से हमारे द्वारा प्रदत्त पृथ्वी पर शासन कर रहे हैं। |
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श्लोक 4: यदि वृष्णि लोग यह सुनकर कि उनका पुत्र पकड़ा गया है यहाँ आते हैं, तो हम उनके घमंड को तोड़ डालेंगे। इस प्रकार से वे उसी तरह दमित हो जायेंगे जिस तरह कठोर नियंत्रण के अन्तर्गत शारीरिक इन्द्रियाँ दमित हो जाती हैं। |
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श्लोक 5: यह कह कर तथा कुरुवंश के वयोवृद्ध सदस्य द्वारा अपनी योजना की स्वीकृति लेने पर कर्ण, शल, भूरि, यज्ञकेतु तथा सुयोधन साम्ब पर आक्रमण करने के लिए कूच कर गए। |
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श्लोक 6: दुर्योधन तथा उसके साथियों को अपनी ओर दौड़ते देखकर, महारथी साम्ब ने अपना सुन्दर धनुष धारण कर लिया और वह सिंह की तरह अकेला खड़ा हो गया। |
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श्लोक 7: पकडऩे के लिए कृतसंकल्प, क्रुद्ध कर्ण इत्यादि धनुर्धरों ने जोर-जोर से साम्ब से कहा, “ठहरो और युद्ध करो, ठहरो और युद्ध करो।” वे उसके पास आये और उस पर बाणों की वर्षा करने लगे। |
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श्लोक 8: हे कुरु-श्रेष्ठ, चूँकि कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुरुगण अनैतिक रीति से तंग कर रहे थे अत: यदुकुल का वह प्रिय पुत्र उनके आक्रमण को सहन नहीं कर सका जिस तरह एक सिंह क्षुद्र पशुओं के आक्रमण को सहन नहीं कर पाता। |
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श्लोक 9-10: अपने अद्भुत धनुष को टंकार करके वीर साम्ब ने बाणों से कर्ण आदि छहों योद्धाओं पर प्रहार किया। उसने छहों रथों को उतने ही बाणों से, चारों घोड़ों की टोली को चार बाणों से और प्रत्येक सारथी को एक एक बाण से बेध डाला। इसी तरह उसने रथों की बागडोर सँभालने वाले (रथी) महान् धनुर्धरों पर भी प्रहार किया। शत्रु योद्धाओं ने साम्ब को उसके इस पराक्रम प्रदर्शन के लिए बधाई दी। |
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श्लोक 11: किन्तु उन्होंने उसे रथ से नीचे उतरने पर विवश कर दिया और उसके बाद उनमें से चार ने उसके चारों घोड़ों को मार दिया, एक ने उसके सारथी को मार डाला और दूसरे ने उसके धनुष को तोड़ डाला। |
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श्लोक 12: युद्ध के दौरान साम्ब को रथविहीन करके कुरु-योद्धाओं ने बड़ी मुश्किल से उसे बाँध लिया और तब वे उस कुमार तथा अपनी राजकुमारी को लेकर विजयी भाव से अपने नगर में प्रविष्ट हुए। |
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श्लोक 13: हे राजन्, जब यादवों ने श्री नारद से यह समाचार सुना तो वे क्रुद्ध हो उठे। राजा उग्रसेन द्वारा प्रेरित किये जाने पर उन्होंने कुरुओं के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर ली। |
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श्लोक 14-15: किन्तु भगवान् बलराम ने वृष्णि-वीरों के क्रोध को शान्त किया जिन्होंने पहले से अपने कवच धारण कर लिये थे। कलह के युग को शुद्ध करने वाले (बलराम) कुरुओं तथा वृष्णियों के बीच कलह नहीं चाहते थे। अत: वे ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों (बड़े-बूढ़ों) के साथ अपने रथ पर हस्तिनापुर गये। उनका रथ सूर्य की तरह तेजोमय था। जब वे जा रहे थे तो ऐसे लग रहे थे मानो प्रधान ग्रहों द्वारा घिरा चन्द्रमा हो। |
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श्लोक 16: हस्तिनापुर पहुँचकर बलराम नगर के बाहर एक बगीचे में रह गए और उद्धव को धृतराष्ट्र के इरादों का पता लगाने के लिए आगे भेज दिया। |
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श्लोक 17: अम्बिका-पुत्र (धृतराष्ट्र) तथा भीष्म, द्रोण, बाह्लिक तथा दुर्योधन को समुचित आदर देकर उद्धव ने उन्हें बतलाया कि भगवान् बलराम आ गये हैं। |
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श्लोक 18: यह सुनकर कि उनके प्रियतम मित्र बलराम आ चुके हैं, वे अत्यधिक प्रसन्न हुए और सर्वप्रथम उन्होंने उद्धव का आदर किया। तत्पश्चात् वे अपने हाथों में शुभ भेंटें लेकर भगवान् से मिलने गये। |
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श्लोक 19: वे भगवान् बलराम के पास गये और गौवों तथा अर्घ्य की भेंटों से, यथोचित विधि से उनकी पूजा की। कुरुओं में से उन लोगों ने जो उनकी असली शक्ति से परिचित थे भूमि को सिर से छू कर उन्हें प्रणाम किया। |
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श्लोक 20: जब दोनों पक्षों ने सुन लिया कि उनके सम्बन्धीगण कुशल-मंगल से हैं और दोनों ने एक- दूसरे से कुशल-मंगल तथा स्वास्थ्य के विषय में पूछताछ कर ली तो बलराम ने कुरुओं से सीधे तौर पर इस प्रकार से कहा। |
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श्लोक 21: [बलरामजी ने कहा] : राजा उग्रसेन हमारे स्वामी तथा राजाओं के भी शासक हैं। तुम लोग एकाग्र चित्त से उसे सुन लो जो उन्होंने तुम लोगों को करने के लिए कहा है और तब उसे तुरन्त करो। |
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श्लोक 22: [राजा उग्रसेन ने कहा है] : यद्यपि तुम में से कई ने अधर्म का सहारा लेकर धर्म के सिद्धान्तों पर चलने वाले अकेले प्रतिद्वन्द्वी को पराजित किया है फिर भी मैं पारिवारिक सदस्यों में एकता बनाये रखने के लिए यह सब सहन कर रहा हूँ। |
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श्लोक 23: बलराम के पराक्रम, साहस तथा बल से पूरित एवं उनकी शक्ति के समरुप इन शब्दों को सुनकर कौरवगण क्रुद्ध हो उठे और इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 24: [कुरुनायकों ने कहा] : ओह, यह कितनी विचित्र बात है! काल की गति निस्सन्देह दुर्लंघ्य है—अब (पैरों की) एक जूती उस सिर पर चढऩा चाहती है, जिसमें राजमुकुट सुशोभित है। |
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श्लोक 25: चूँकि ये वृष्णिजन हमसे वैवाहिक सम्बन्धों से बँधे हैं इसलिए हमने इन्हें अपनी शय्या, आसन तथा भोजन में बराबरी का पद दे रखा है। असल में तो हमीं ने इन्हें राज-सिंहासन प्रदान किया है। |
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श्लोक 26: चूँकि हमने परवाह नहीं की इसलिए वे चमरी के पंखे तथा शंख, श्वेत छाता, सिंहासन तथा राजशय्या का भोग कर सके। |
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श्लोक 27: अब यदुओं को इससे आगे इन राजसी प्रतीकों का उपयोग न करने दिया जाय क्योंकि अब ये प्रदान करने वालों के लिए कष्टप्रद बन रहे हैं जिस तरह विषैले साँपों को पिलाया गया दूध। ये यादवगण हमारी कृपा से समृद्ध बनकर अब सारी लाज शर्म खो चुके हैं और हमें आदेश देने का दुस्साहस कर रहे हैं। |
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श्लोक 28: भला इन्द्र भी किसी वस्तु को हड़पने का दुस्साहस कैसे कर सकता है, जिसे भीष्म, द्रोण, अर्जुन या अन्य कुरुजनों ने उसे नहीं दिया है? यह तो वैसा ही है जैसे मेमना सिंह के वध की माँग करे। |
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श्लोक 29: श्रीबादरायण ने कहा, हे भारतों में श्रेष्ठ, अपने उच्च जन्म तथा सम्बन्धों के ऐश्वर्य से फूल कर कुप्पा हुए घमंडी कुरु जब ये कटु वचन बलराम से कह चुके तो वे अपने नगर को वापस चले गये। |
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श्लोक 30: कुरुओं के दुराचरण को देखकर तथा उनके भद्दे शब्दों को सुनकर अच्युत भगवान् बलराम क्रोध से उबल पड़े। उनका मुखमण्डल देखने में भयावना था और बारम्बार हँसते हुए वे इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 31: [भगवान् बलराम ने कहा] : “स्पष्ट है कि इन बदमाशों की विविध वासनाओं ने इन्हें इतना दम्भी बना दिया है कि वे शान्ति चाहते ही नहीं। तो फिर इन्हें शारीरिक दण्ड द्वारा समझाना बुझाना होगा जिस तरह लाठी से पशुओं को सीधा किया जाता है। |
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श्लोक 32-33: “ओह! मैं धीरे धीरे ही क्रुद्ध यदुजनों तथा कृष्ण को भी, जिन्हें क्रोध आ गया था शान्त कर सका था। मैं इन कौरवों के लिए शान्ति की कामना करते हुए यहाँ आया। किन्तु ये इतने मूर्ख, स्वभाव से कलह-प्रिय तथा दुष्ट हैं कि इन्होंने बारम्बार मेरा अनादर किया है। दम्भ के कारण इन्होंने मुझसे कटु वचन कहने का दुस्साहस किया है। |
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श्लोक 34: “क्या भोजों, वृष्णियों तथा अन्धकों के स्वामी राजा उग्रसेन आदेश देने योग्य नहीं हैं जबकि इन्द्र तथा अन्य लोकपालक उनके आदेशों का पालन करते हैं? |
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श्लोक 35: “वही कृष्ण जो सुधर्मा सभाभवन के अधिकारी हैं और जिन्होंने अपने आनन्द के लिए अमर देवताओं से पारिजात वृक्ष ले लिया—क्या वही कृष्ण राजसिंहासन पर बैठने योग्य नहीं हैं? |
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श्लोक 36: “समस्त ब्रह्माण्ड की स्वामिनी साक्षात् लक्ष्मीजी उनके पैरों की पूजा करती हैं। और उन्हीं लक्ष्मी के पति क्या मर्त्य राजा की साजसामग्री के पात्र नहीं हैं? |
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श्लोक 37: समस्त लोकों के प्रधान देवता उनकी सेवा में लगे रहते हैं और अपने मुकुटों पर कृष्ण के चरणकमलों की धूल धारण करके अपने को परम भाग्यशाली मानते हैं। ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे बड़े बड़े देवता, यहाँ तक कि लक्ष्मीजी और मैं भी उनके दिव्य व्यक्तित्व के अंश हैं और हम भी उस धूल को बड़ी सावधानी से अपने सिरों पर धारण करते हैं। क्या इतने पर भी कृष्ण राजप्रतीकों का उपयोग करने या राजसिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हैं? |
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श्लोक 38: “हम वृष्णिगण केवल उस छोटे से भूभाग का भोग करते हैं जिस किसी की कुरुगण हमें अनुमति देते हैं? और हम निस्सन्देह जूते हैं जबकि कुरुगण सिर हैं? |
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श्लोक 39: “जरा देखो तो इन अभिमानी कुरुओं को जो सामान्य शराबियों की तरह अपने तथाकथित अधिकार से उन्मत्त हैं! ऐसा कौन वास्तविक शासक, जो आदेश देने के अधिकार से युक्त है, उनके मूर्खतापूर्ण एवं बेतुके शब्दों को सह सकेगा?” |
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श्लोक 40: क्रुद्ध बलराम ने घोषणा की, “आज मैं पृथ्वी को कौरवों से विहीन कर दूँगा।” यह कहकर उन्होंने अपना हलायुध ले लिया और उठ खड़े हुए मानो तीनों लोकों को स्वाहा करने जा रहे हों। |
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श्लोक 41: भगवान् ने क्रुद्ध होकर अपने हल की नोक से हस्तिनापुर को उखाड़ा और सम्पूर्ण नगर को गंगा नदी में फेंकने की मंशा से उसे घसीटने लगे। |
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श्लोक 42-43: घसीटे जा रहे अपने नगर को समुद्र में घन्नाई की तरह डगमगाते तथा गंगा में गिरने ही वाला देखकर, सारे कौरव भयभीत हो उठे। वे अपने प्राण बचाने के लिए अपने साथ अपने परिवारों को लेकर भगवान् की शरण लेने गये। साम्ब तथा लक्ष्मणा को आगे करके उन्होंने विनयपूर्वक अपने हाथ जोड़ लिये। |
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श्लोक 44: [कौरवों ने कहा] : हे राम, हे सर्वाधार राम, हम आपकी शक्ति के बारे में कुछ भी नहीं जानते। कृपया हमारा अपराध क्षमा कर दें क्योंकि हम अज्ञानी हैं तथा बहकावे में आ गये थे। |
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श्लोक 45: आप अकेले जगत का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं और आपका कोई पूर्व हेतु (कारण) नहीं है। दरअसल, हे प्रभु, विद्वानों का कहना है कि जब आप अपनी लीलाएँ करते हैं, तो सारे संसार आपके खिलौने जैसे होते हैं। |
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श्लोक 46: हे हजार सिरों वाले अनन्त, आप अपनी लीला के रूप में इस भूमण्डल को अपने एक सिर पर धारण करते हैं। संहार के समय आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने शरीर के भीतर लीन कर लेते हैं और अकेले बचकर विश्राम करने के लिए लेट जाते हैं। |
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श्लोक 47: आपका क्रोध हर एक को शिक्षा देने के निमित्त है, यह घृणा या द्वेष की अभिव्यक्ति नहीं हैं। हे परमेश्वर, आप शुद्ध सतोगुण को धारण करते हैं और इस जगत को बनाये रखने तथा इसकी रक्षा करने के लिए ही क्रुद्ध होते हैं। |
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श्लोक 48: हे समस्त जीवों के आत्मा, हे समस्त शक्तियों को धारण करने वाले, हे ब्रह्माण्ड के अव्यय स्रष्टा, हम आपको नमस्कार करते हैं और नमस्कार करते हुए आपकी शरण ग्रहण करते हैं। |
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श्लोक 49: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जिन कौरवों का नगर डगमगा रहा था और जो अत्यन्त कष्ट में होने से उनकी शरण में आ रहे थे, ऐसे कौरवों द्वारा स्तुति किये जाने पर बलराम शान्त हो गये और उनके प्रति कृपालु हो गये। उन्होंने कहा “डरो मत।” फिर उनके भय को हर लिया। |
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श्लोक 50-51: अपनी पुत्री के प्रति अत्यन्त वत्सल दुर्योधन ने उसे दहेज में १,२०० साठ वर्षीय हाथी, १,२०,००० घोड़े, ६,००० सूर्य जैसे चमकते सुनहरे रथ तथा १,००० दासियाँ दीं जो गलों में रत्नजटित हार पहने थीं। |
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श्लोक 52: यादवों के प्रमुख भगवान् ने इन सारे उपहारों को स्वीकार किया और तब अपने पुत्र तथा अपनी पुत्रवधू सहित वहाँ से प्रस्थान किया और उनके शुभचिन्तकों ने उन्हें विदाई दी। |
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श्लोक 53: तब भगवान् हलायुध अपने नगर (द्वारका) में प्रविष्ट हुए और अपने सम्बन्धियों से मिले जिनके हृदय उनसे अनुराग में बँधे थे। सभाभवन में उन्होंने कुरुओं के साथ हुई प्रत्येक घटना यदुओं से कह सुनाई। |
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श्लोक 54: आज भी हस्तिनापुर नगर गंगा के तट पर दक्षिणी दिशा में उठा हुआ दिखता है। इस तरह यह भगवान् बलराम के पराक्रम का सूचक है। |
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