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अध्याय 71: भगवान् की इन्द्रप्रस्थ यात्रा
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह भगवान् कृष्ण ने उद्धव की सलाह मानी और इन्द्रप्रस्थ गये, जहाँ पाण्डवों ने बड़ी धूमधाम से उनकी अगवानी की।
भगवान् कृष्ण की... |
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श्लोक 1: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह देवर्षि नारद के कथनों को सुनकर और सभाजनों तथा कृष्ण दोनों के मतों को जानकर महामति उद्धव इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 2: श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, जैसी ऋषि ने सलाह दी है, आपको चाहिए कि आप राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने की योजना में अपने फुफेरे भाई युधिष्ठिर की सहायता करें। आपको उन राजाओं की भी रक्षा करनी चाहिए, जो आपकी शरण के लिए याचना कर रहे हैं। |
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श्लोक 3: हे सर्वशक्तिमान विभु, जिसने दिग्विजय कर ली हो, वही राजसूय यज्ञ कर सकता है। इस तरह मेरे विचार से जरासन्ध पर विजय पाने से दोनों उद्देश्य पूरे हो सकेंगे। |
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श्लोक 4: इस निर्णय से हमें बहुत बड़ा लाभ होगा और आप राजाओं को बचा सकेंगे। इस तरह, हे गोविन्द, आपका यश बढ़ेगा। |
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श्लोक 5: दुर्जेय जरासन्ध दस हजार हाथियों जितना बलवान् है। निस्सन्देह अन्य बलशाली योद्धा उसे पराजित नहीं कर सकते। केवल भीम ही बल में उसके समान है। |
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श्लोक 6: उसे एकाकी रथों की प्रतियोगिता में हराया जा सकेगा किन्तु अपनी एक सौ अक्षौहिणी सेना के साथ होने पर वह नहीं हराया जा सकता। और, जरासन्ध ब्राह्मण संस्कृति के प्रति इतना अनुरक्त है कि वह ब्राह्मणों की याचनाओं को कभी मना नहीं करता। |
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श्लोक 7: भीम ब्राह्मण का वेश बनाकर उसके पास जाये और दान माँगे। इस तरह उसे जरासन्ध के साथ द्वन्द्व युद्ध की प्राप्ति होगी और आपकी उपस्थिति में भीम अवश्य ही उसको मार डालेगा। |
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श्लोक 8: ब्रह्माण्ड के सृजन तथा संहार में ब्रह्मा तथा शिव भी आपके उपकरण की तरह कार्य करते हैं, जिन्हें अन्तत: आप काल के अपने अदृश्य रूप में सम्पन्न करते हैं। |
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श्लोक 9: बन्दी राजाओं की दैवी पत्नियाँ आपके नेक कार्यों का—कि आप किस तरह उनके पतियों के शत्रुओं को मार कर उनका उद्धार करेंगे—गायन करती हैं। गोपियाँ भी आपका यशोगान करती हैं कि आपने किस तरह गजेन्द्र के शत्रु को, जनक की पुत्री सीता के शत्रु को तथा अपने माता-पिता के शत्रु को मारा। इसी तरह जिन मुनियों ने आपकी शरण ले रखी है, वे हमारी ही तरह आपका यशोगान करते हैं। |
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श्लोक 10: हे कृष्ण, जरासन्ध का वध निश्चित ही उसके विगत पापों का ही फल है। इससे प्रभूत लाभ होगा। निस्सन्देह इससे आपका मनवांछित यज्ञ सम्भव हो सकेगा। |
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श्लोक 11: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, देवर्षि नारद, वरिष्ठ यादवजन तथा कृष्ण—सबों ने उद्धव के प्रस्ताव का स्वागत किया, क्योंकि जो सर्वथा शुभ तथा अच्युत था। |
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श्लोक 12: देवकी-पुत्र सर्वशक्तिमान भगवान् ने अपने वरिष्ठ से विदा होने की अनुमति माँगी। तत्पश्चात् उन्होंने दारुक, जैत्र इत्यादि सेवकों को प्रस्थान की तैयारी करने का आदेश दिया। |
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श्लोक 13: हे शत्रुहन्ता, अपनी पत्नियों, पुत्रों तथा सामान को भेजे जाने की व्यवस्था कर देने के बाद और संकर्षण तथा राजा उग्रसेन से विदा लेने के बाद भगवान् कृष्ण अपने रथ पर चढ़ गये, जिसे उनका सारथी ले आया था। इस पर गरुड़-चिन्हित पताका फहरा रही थी। |
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श्लोक 14: ज्योंही मृदंग, भेरी, दुदुंभी, शंख तथा गोमुख की ध्वनि-तरंगों से सारी दिशाएँ गूँजने लगीं, त्योंही भगवान् कृष्ण अपनी यात्रा के लिए चल पड़े। उनके साथ में रथों, हाथियों, पैदलों तथा घुड़सवारों के सेनादलों के मुख्य अधिकारी थे और चारों ओर से वे अपने भयानक निजी रक्षकों द्वारा घिरे थे। |
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श्लोक 15: भगवान् अच्युत की सती-साध्वी पत्नियाँ अपनी सन्तानों सहित सोने की पालकियों में भगवान् के पीछे पीछे चलीं, जिन्हें शक्तिशाली पुरुष उठाये ले जा रहे थे। रानियाँ सुन्दर वस्त्रों, आभूषणों, सुगन्धित तेलों तथा फूल की मालाओं से सजी थीं और चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरी थीं, जो अपने हाथों में तलवार-ढाल लिये थे। |
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श्लोक 16: उनके चारों ओर खूब सजी-धजी स्त्रियाँ—जो कि राजघराने की सेविकाएँ तथा राज दरबारियों की पत्नियाँ थीं—चल रही थीं। वे पालकियों तथा ऊँटों, बैलों, भैंसों, गधों, खच्चरों, बैलगाडिय़ों तथा हाथियों पर सवार थीं। उनके वाहन घास के तम्बुओं, कम्बलों, वस्त्रों तथा यात्रा की अन्य सामग्रियों से खचाखच भरे थे। |
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श्लोक 17: भगवान् की सेना राजसी छाते, चामर-पंखों तथा लहराती पताकाओं के विशाल ध्वज-दंडों से युक्त थी। दिन के समय सूर्य की किरणें सैनिकों के उत्तम हथियारों, गहनों, किरीट तथा कवचों से परावर्तित होकर चमक रही थीं। इस तरह जयजयकार तथा कोलाहल करती कृष्ण की सेना ऐसी लग रही थी मानों क्षुब्ध लहरों तथा तिमिंगल मछलियों से आलोडि़त समुद्र हो। |
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श्लोक 18: यदुओं के प्रमुख श्रीकृष्ण द्वारा सम्मानित होकर नारदमुनि ने भगवान् को नमस्कार किया। भगवान् कृष्ण से मिल कर नारद की सारी इन्द्रियाँ तुष्ट हो चुकी थीं। इस तरह भगवान् के निर्णय को सुन कर तथा उनकी पूजा स्वीकार करके, उन्हें अपने हृदय में दृढ़ता से धारण करके, नारद आकाश से होकर चले गये। |
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श्लोक 19: राजाओं द्वारा भेजे गये दूत को भगवान् ने मीठे शब्दों में सम्बोधित किया, “हे दूत, मैं तुम्हारे सौभाग्य की कामना करता हूँ। मैं मगध के राजा के वध की व्यवस्था करूँगा। डरना मत।” |
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श्लोक 20: इस प्रकार कहे जाने पर दूत चला गया और जाकर राजाओं से भगवान् का सन्देश सही सही सुना दिया। तब स्वतंत्र होने के लिए उत्सुक वे सभी भगवान् कृष्ण से भेंट करने के लिए आशान्वित होकर प्रतीक्षा करने लगे। |
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श्लोक 21: आनर्त, सौवीर, मरुदेश तथा विनशन प्रदेशों से होकर यात्रा करते हुए भगवान् हरि ने नदियाँ पार कीं और वे पर्वतों, नगरों, ग्रामों, चरागाहों तथा खानों से होकर गुजरे। |
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श्लोक 22: दृषदूती और सरस्वती नदियों को पार करने के पश्चात् वे पंचाल तथा मत्स्य प्रदेशों में से गुजरते हुए अन्त में इन्द्रप्रस्थ पहुँचे। |
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श्लोक 23: राजा युधिष्ठिर यह सुनकर अतीव प्रसन्न हुए कि दुर्लभ दर्शन देने वाले भगवान् आ चुके हैं। भगवान् कृष्ण से मिलने के लिए राजा अपने पुरोहितों तथा प्रिय संगियों समेत बाहर आ गये। |
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श्लोक 24: वैदिक स्तुतियों की उच्च ध्वनि के साथ साथ गीत तथा संगीत-वाद्य गूंजने लगे और राजा बड़े ही आदर के साथ भगवान् हृषीकेश से मिलने के लिए आगे बढ़े, जिस तरह इन्द्रियाँ प्राणों से मिलने आगे बढ़ती हैं। |
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श्लोक 25: जब राजा युधिष्ठिर ने अपने परमप्रिय मित्र भगवान् कृष्ण को इतने दीर्घ वियोग के बाद देखा, तो उनका हृदय स्नेह से द्रवित हो उठा और उन्होंने भगवान् का बारम्बार आलिंगन किया। |
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श्लोक 26: भगवान् कृष्ण का नित्य स्वरूप लक्ष्मीजी का सनातन निवास है। ज्योंही युधिष्ठिर ने उनका आलिंगन किया, वे समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो गये। उन्हें तुरन्त दिव्य आनन्द की अनुभूति हुई और वे सुख-सागर में निमग्न हो गये। उनकी आँखों में आँसू आ गये और भावाविष्ट होने से उनका शरीर थरथराने लगा। वे पूरी तरह से भूल गये कि वे इस भौतिक जगत में रह रहे हैं। |
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श्लोक 27: तब आँखों में आँसू भरे भीम ने अपने ममेरे भाई कृष्ण का आलिंगन किया और फिर हर्ष से हँसने लगे। अर्जुन तथा जुड़वाँ भाई—नकुल तथा सहदेव ने भी अपने सर्वाधिक प्रिय मित्र अच्युत भगवान् का हर्षपूर्वक आलिंगन किया और जोर-जोर से रोने लगे। |
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श्लोक 28: जब अर्जुन उनका पुन: आलिंगन कर चुके और नकुल तथा सहदेव उन्हें नमस्कार कर चुके, तो श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों तथा उपस्थित बड़े-बूढ़ों को नमस्कार किया। इस तरह उन्होंने कुरु, सृञ्जय तथा कैकय वंशों के माननीय सदस्यों का सत्कार किया। |
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श्लोक 29: सूतों, मागधों, गन्धर्वों, वन्दीजनों, विदूषकों तथा ब्राह्मणों में से कुछ ने स्तुति करके, कुछ ने नाच-गाकर कमल-नेत्र भगवान् का यशोगान किया। मृदंग, शंख, दुंदुभी, वीणा, पणव तथा गोमुख गूंजने लगे। |
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श्लोक 30: इस तरह अपने शुभचिन्तक सम्बन्धियों से घिर कर तथा चारों ओर से प्रशंसित होकर विख्यातों के शिरोमणि भगवान् कृष्ण सजे सजाये नगर में प्रविष्ट हुए। |
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श्लोक 31-32: इन्द्रप्रस्थ की सडक़ें हाथियों के मस्तक से निकले द्रव से सुगंधित किये गये जल से छिडक़ी गई थीं। रंगबिरंगी झंडिया, सुनहरे द्वार तथा पूर्ण जलघटों से नगर की भव्यता बढ़ गई थी। पुरुष तथा तरुणियाँ उत्तम नए वस्त्रों से सुन्दर ढंग से सजी थीं, फूलों की मालाओं तथा गहनों से अलंकृत थीं तथा सुगन्धित चन्दन-लेप से लेपित थीं। हर घर में जगमगाते दीपक दिख रहे थे और सादर भेंटे दी जा रही थीं। जालीदार खिड़कियों के छिद्रों से अगुरु का धुँआ निकल रहा था, जिससे नगर की सुन्दरता और भी बढ़ रही थी। झंडियाँ हिल रही थीं और छतों को चाँदी के चौड़े आधारों पर रखे सुनहरे कलशों से सजाया गया था। इस प्रकार भगवान् कृष्ण ने कुरुराज के राजसी नगर को देखा। |
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श्लोक 33: जब नगर की युवतियों ने सुना कि मनुष्यों के नेत्रों के लिए आनन्द के आगार भगवान् कृष्ण आए हैं, तो उन्हें देखने के लिए वे जल्दी जल्दी राजमार्ग तक पहुंच गईं। उन्होंने अपने घर के कार्यों (टहल) को त्याग दिया, यहाँ तक कि अपने पतियों को भी पलंग में ही छोड़ आईं। उत्सुकतावश उनके बालों की गाँठें तथा वस्त्र ढीले पड़ गये। |
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श्लोक 34: राजमार्ग पर हाथियों, घोड़ों, रथों तथा पैदल सैनिकों की खूब भीड़ थी, इसलिए स्त्रियाँ अपने घरों की छतों पर चढ़ गईं, जहाँ से उन्होंने कृष्ण तथा उनकी रानियों को देखा। नगर की स्त्रियों ने भगवान् पर फूल बरसाये, मन ही मन उनका आलिंगन किया और हँसीयुक्त चितवनों से अपना हार्दिक स्वागत व्यक्त किया। |
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श्लोक 35: मार्ग पर मुकुन्द की पत्नियों को चन्द्रमा के साथ तारों की तरह गुजरते देखकर स्त्रियाँ चिल्ला उठीं, “इन स्त्रियों ने कौन-सा कर्म किया है, जिससे उत्तमोत्तम व्यक्ति अपनी उदार मुसकान तथा क्रीड़ायुक्त दीर्घ चितवनों से उनके नेत्रों को सुख प्रदान कर रहे हैं?” |
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श्लोक 36: विभिन्न स्थानों पर नगरवासी अपने हाथों में कृष्ण के लिए शुभ भेंटें लेकर आये और प्रमुख निष्पाप व्यापारी भगवान् की पूजा करने के लिए आगे बढ़े। |
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श्लोक 37: प्रफुल्ल नेत्रों से अन्त:पुर के सदस्य भगवान् मुकुन्द का प्रेमपूर्वक स्वागत करने जोश से आगे बढ़े और इस तरह भगवान् राजमहल में प्रविष्ट हुए। |
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श्लोक 38: जब महारानी कुन्ती ने अपने भतीजे कृष्ण को, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, देखा तो उनका हृदय प्रेम से भर गया। वे अपनी पुत्रवधू सहित अपने पलंग से उठीं और उन्होंने भगवान् का आलिंगन किया। |
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श्लोक 39: देवताओं के परमेश्वर, भगवान् गोविन्द को राजा युधिष्ठिर अपने निजी निवासस्थान में ले आये। राजा हर्ष से इतने विभोर हो गये कि उन्हें पूजा का सारा अनुष्ठान विस्मृत हो गया। |
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श्लोक 40: हे राजन्, भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ तथा उनके गुरुजनों की पत्नियों को नमस्कार किया। तब द्रौपदी तथा भगवान् की बहन ने उन्हें नमस्कार किया। |
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श्लोक 41-42: अपनी सास से अभिप्रेरित होकर द्रौपदी ने भगवान् कृष्ण की पत्नियों-रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, शिबि की वंशजा मित्रविन्दा, सती नाग्नजिती को तथा वहाँ पर उपस्थित भगवान् की अन्य रानियों को नमस्कार किया। द्रौपदी ने वस्त्र, फूल-मालाएँ तथा रत्नाभूषण जैसे उपहारों से उन सबों का सत्कार किया। |
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श्लोक 43: राजा युधिष्ठिर ने कृष्ण के विश्राम का प्रबन्ध किया और इसका ध्यान रखा कि जितने सारे लोग उनके साथ आये हैं—यथा उनकी रानियाँ, सैनिक, मंत्री तथा सचिव—वे सुखपूर्वक ठहर जाँय। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि जब तक वे पाण्डवों के अतिथि रूप में रहें, प्रतिदिन उनका नया नया स्वागत हो। |
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श्लोक 44-45: राजा युधिष्ठिर को तुष्ट करने की इच्छा से भगवान् कई मास इन्द्रप्रस्थ में रहते रहे। अपने आवास-काल के समय उन्होंने तथा अर्जुन ने अग्निदेव को खाण्डव वन भेंट करके तुष्ट किया। उन्होंने मय दानव को बचाया जिसने बाद में राजा युधिष्ठिर के लिए दैवी सभाभवन बनाया। अर्जुन के साथ सैनिकों से घिर कर भगवान् ने अपने रथ पर सवारी करने के अवसर का भी लाभ उठाया। |
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