श्रीराजोवाच
अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम् ।
सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन् नृदेवा ये समागता: ॥ १ ॥
दुर्योधनं वर्जयित्वा राजान: सर्षय: सुरा: ।
इति श्रुतं नो भगवंस्तत्र कारणमुच्यताम् ॥ २ ॥
शब्दार्थ
श्री-राजा उवाच—राजा (परीक्षित) ने कहा; अजात-शत्रो:—युधिष्ठिर का, जिसके शत्रु जन्मे ही नहीं; तम्—उसको; दृष्ट्वा— देख कर; राजसूय—राजसूय यज्ञ का; महा—महान्; उदयम्—उत्सव; सर्वे—सभी; मुमुदिरे—प्रसन्न थे; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण (शुकदेव); नृ-देवा:—राजागण; ये—जो; समागता:—एकत्र हुए; दुर्योधनम्—दुर्योधन को; वर्जयित्वा—छोड़ कर, के अतिरिक्त; राजान:—राजा; स—सहित; ऋषय:—ऋषिगण; सुरा:—तथा देवतागण; इति—इस प्रकार; श्रुतम्—सुना हुआ; न:—हमारे द्वारा; भगवन्—हे प्रभु; तत्र—उस; कारणम्—कारण को; उच्यताम्—कृपया कहें या बतलायें ।.
अनुवाद
महाराज परीक्षित ने कहा : हे ब्राह्मण, मैंने आपसे जो कुछ सुना उसके अनुसार, एकमात्र दुर्योधन के अतिरिक्त, वहाँ एकत्रित समस्त राजा, ऋषि तथा देवतागण अजातशत्रु राजा के राजसूय यज्ञ के अद्भुत उत्सव को देख कर परम हर्षित थे। हे प्रभु, कृपा करके मुझसे कहें कि ऐसा क्यों हुआ?
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