श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 75: दुर्योधन का मानमर्दन  » 
 
 
 
संक्षेप विवरण
 
 इस अध्याय में राजसूय यज्ञ के भव्य समापन तथा राजा युधिष्ठिर के महल में राजकुमार दुर्योधन के मानमर्दन का वर्णन हुआ है।
महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय उनके अनेक सम्बन्धियों तथा हितैषियों ने आवश्यक सेवाएँ करके उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास किया। जब यज्ञ पूर्ण हो गया, तो राजा ने पुरोहितों, उच्च सभासदों तथा अपने सम्बन्धियों को सुगन्धित चन्दन-लेप, फूल-मालाओं तथा उत्तम वस्त्रों से अलंकृत किया। तत्पश्चात् सारे लोग यमुना नदी के तट पर यज्ञ के बाद स्नान-कृत्य सम्पन्न करने गये, जो यजमान के यज्ञ की अवधि के समापन का सूचक है। इस अन्तिम स्नान के पूर्व पुरुषों तथा स्त्रियों ने जल-क्रीड़ा का आनन्द लिया। सुगन्धित जल तथा अन्य द्रव से छिडक़े जाने के कारण द्रौपदी तथा अन्य स्त्रियाँ अत्यन्त सुन्दर लग रही थीं और उनके मुख सलज्ज हास से चमक रहे थे।

जब पुरोहितगण अन्तिम अनुष्ठान सम्पन्न करा चुके, तो राजा तथा उनकी रानी श्रीमती द्रौपदी ने यमुना में स्नान किया। तत्पश्चात् वर्णाश्रम-धर्म के मानने वाले वहाँ पर उपस्थित सबों ने स्नान किया। युधिष्ठिर ने नये वस्त्र पहने और विद्वान ब्राह्मणों, अपने परिवारवालों, मित्रों तथा हितैषियों की यथोचित पूजा की और उन्हें विविध उपहार दिये। तत्पश्चात् सारे अतिथि अपने अपने घरों को विदा हो गये। किन्तु राजा युधिष्ठिर अपने प्रियजनों के आसन्न वियोग से इतने चिन्तित थे कि उन्होंने अपने कई सम्बन्धियों तथा कृष्ण समेत अनेक घनिष्ठ मित्रों को इन्द्रप्रस्थ में कुछ दिन और रुके रहने के लिए बाध्य कर दिया।

राजा युधिष्ठिर का राजमहल मय दानव द्वारा बनाया गया था, जिसने इसे अनेक अद्भुत गुणों तथा ऐश्वर्यों से युक्त कर दिया था। जब राजा दुर्योधन ने यह ठाट-बाट देखा, तो वह ईर्ष्या से जलने लगा। एक दिन युधिष्ठिर कृष्ण के साथ अपने सभाभवन में बैठे थे। अपने अनुचरों तथा परिवारजनों के द्वारा सेवित उनकी भव्यता राजा इन्द्र के समान प्रदर्शित हो रही थी। उसी समय दुर्योधन उन्मत्तावस्था में उस सभाभवन में प्रविष्ट हुआ। मयदानव की योग शिल्पकला से मोहग्रस्त दुर्योधन ने ठोस फर्श के कुछ भाग को जल समझ कर अपने वस्त्र उठा लिये और एक स्थान को ठोस फर्श समझ कर वह जल में गिर गया। जब भीमसेन, दरबार की महिलाओं तथा राजकुमारों ने यह देखा, तो सभी हँसने लगे। यद्यपि महाराज युधिष्ठिर ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु भगवान् कृष्ण ने इस हँसी को प्रोत्साहित किया। दुर्योधन पूरी तरह क्षुब्ध होकर क्रोधवश सभाभवन से निकल आया और उसने तुरन्त हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान कर दिया।

 
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