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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 76: शाल्व तथा वृष्णियों के मध्य युद्ध  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह शाल्व नामक असुर ने एक विशाल तथा भयानक विमान प्राप्त किया और किस तरह इसका उपयोग द्वारका में वृष्णियों पर आक्रमण करने के लिए...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, अब उन भगवान् कृष्ण द्वारा सम्पन्न एक अन्य अद्भुत् कार्य सुनो, जो दिव्य लीलाओं का आनन्द लेने के लिए अपने मानव शरीर में प्रकट हुए। अब सुनो कि उन्होंने किस तरह सौभपति का वध किया।
 
श्लोक 2:  शाल्व शिशुपाल का मित्र था। जब वह रुक्मिणी के विवाह में सम्मिलित हुआ था, तो यदुवीरों ने उसे जरासन्ध तथा अन्य राजाओं समेत युद्ध में परास्त कर दिया था।
 
श्लोक 3:  शाल्व ने समस्त राजाओं के समक्ष प्रतिज्ञा की, “मैं पृथ्वी को यादवों से विहीन कर दूँगा। जरा मेरे पराक्रम को देखो।”
 
श्लोक 4:  यह प्रतिज्ञा कर चुकने के बाद वह मूर्ख राजा प्रतिदिन मात्र एक मुट्ठी धूल फाँक कर भगवान् पशुपति (शिव) की पूजा करने लगा।
 
श्लोक 5:  भगवान् उमापति शीघ्र प्रसन्न होने वाले अर्थात् आशुतोष कहलाते हैं, फिर भी उन्होंने अपनी शरण में आये शाल्व को एक वर्ष के बाद ही यह कह कर तुष्ट किया कि तुम जो वर चाहो माँग सकते हो।
 
श्लोक 6:  शाल्व ने ऐसा यान चुना, जो न तो देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गन्धर्वों, उरगों और न ही राक्षसों द्वारा नष्ट किया जा सके और जो उसकी इच्छानुसार कहीं भी यात्रा करा सके और वृष्णियों को भयभीर करा सके।
 
श्लोक 7:  शिवजी ने कहा, “ऐसा ही हो।” उनके आदेश पर अपने शत्रुओं के नगरों को जीत लेने वाले मय दानव ने एक लोहे की उडऩ नगरी बनाई, जिसका नाम सौभ था और लाकर शाल्व को भेंट कर दी।
 
श्लोक 8:  यह दुर्दम्य यान अंधकार से पूर्ण था और कहीं भी जा सकता था। इसे प्राप्त करने पर शाल्व अपने प्रति वृष्णियों की शत्रुता स्मरण करते हुए द्वारका गया।
 
श्लोक 9-11:  हे भरतश्रेष्ठ, शाल्व ने विशाल सेना के साथ नगर को घेर लिया और बाहरी वाटिकाओं तथा उद्यानों, अट्टालिकाओं समेत महलों, गोपुरों तथा चार दीवारियों के साथ साथ सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों को भी ध्वस्त कर दिया। उसने अपने इस उत्कृष्ट यान से पत्थरों, वृक्ष के तनों, वज्रों, सर्पों, ओलों इत्यादि हथियारों की वर्षा की। एक भीषण बवण्डर उठ खड़ा हुआ और उसने धूल से सारी दिशाओं को ओझल बना दिया।
 
श्लोक 12:  हे राजन्, इस तरह सौभ विमान द्वारा बुरी तरह सताये जाने से कृष्ण की पुरी में अमन-चैन नहीं रहा, जिस तरह असुरों की तीन हवाई-नगरियों द्वारा आक्रमण किये जाने पर पृथ्वी अशान्त हो गई थी।
 
श्लोक 13:  अपनी प्रजा को इस प्रकार सताई जाते देखकर यशस्वी तथा वीर भगवान् प्रद्युम्न ने उनसे इस प्रकार कहा, “डरो मत” तथा वह अपने रथ पर सवार हो गया।
 
श्लोक 14-15:  रथियों के प्रमुख सेनापति यथा सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, अक्रूर तथा उसके छोटे भाई और उनके साथ ही हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शुक तथा सारण अनेक अन्य प्रमुख धनुर्धरों के साथ कवच धारण करके तथा रथों, हाथियों और घोड़ों पर सवार सैनिकों एवं पैदल सिपाहियों की टुकडिय़ों से सुरक्षित होकर नगर से बाहर आ गये।
 
श्लोक 16:  तब शाल्व की सेनाओं तथा यदुओं के बीच रोंगटे खड़ा कर देने वाला भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ। यह असुरों तथा देवताओं के मध्य हुए महान् युद्ध के तुल्य था।
 
श्लोक 17:  प्रद्युम्न ने अपने दैवी हथियारों से शाल्व की सारी माया को क्षण-भर में उसी तरह नष्ट कर दिया, जिस तरह सूर्य की तप्त किरणें रात्रि के अँधेरे को दूर कर देती हैं।
 
श्लोक 18-19:  प्रद्युम्न के सारे तीरों के पुछल्ले सोने के, सिरे लोहे के तथा जोड़ एकदम सपाट थे। उसने पच्चीस तीरों से शाल्व के प्रधान सेनापति द्युमान् को मार गिराया और एक सौ तीरों से शाल्व पर प्रहार किया। फिर उसने शाल्व के हर अधिकारी को एक-एक तीर से, सारथियों में से प्रत्येक को दस-दस तीरों से तथा उसके घोड़ों एवं अन्य वाहनों को तीन-तीन बाणों से बेध डाला।
 
श्लोक 20:  जब उन्होंने यशस्वी प्रद्युम्न को वह चकित करने वाला तथा बलशाली ऐसा करतब करते देखा, तो दोनों पक्षों के सैनिकों ने उसकी प्रशंसा की।
 
श्लोक 21:  मय दानव द्वारा निर्मित यह मायावी विमान एक क्षण अनेक एक जैसे रूपों में प्रकट होता और दूसरे क्षण पुन: केवल एक रूप में दिखता। कभी यह दिखता और कभी नहीं दिखता था। इस तरह शाल्व के विरोधी यह निश्चित नहीं कर पाते थे कि वह कहाँ है।
 
श्लोक 22:  एक क्षण से दूसरे क्षण में सौभ विमान पृथ्वी में, आकाश में, पर्वत की चोटी पर या जल में दिखता था। घूमते हुए अग्नि-पुंज की तरह वह कभी एक स्थान पर नहीं टिकता था।
 
श्लोक 23:  शाल्व जहाँ जहाँ अपने सौभ यान तथा अपनी सेना के साथ प्रकट होता, वहाँ वहाँ यदु सेनापति अपने बाण छोड़ते।
 
श्लोक 24:  अपने शत्रु के बाणों से त्रस्त हो रही अपनी सेना तथा वायव-पुरी को देखकर शाल्व मोहग्रस्त हो गया, क्योंकि शत्रु के बाण अग्नि तथा सूर्य की तरह प्रहार कर रहे थे और सर्प-विष की तरह असह्य हो रहे थे।
 
श्लोक 25:  चूँकि वृष्णि-कुल के वीरगण इस जगत में तथा अगले लोक में विजय पाने के लिए उत्सुक थे, इसलिए उन्होंने रणभूमि में अपने नियत स्थानों का परित्याग नहीं किया, यद्यपि शाल्व के सेनापतियों द्वारा चलाये गये हथियारों की वर्षा से उन्हें त्रास हो रहा था।
 
श्लोक 26:  शाल्व का मंत्री द्युमान्, जो इसके पूर्व श्री प्रद्युम्न द्वारा घायल कर दिया गया था, अब जोर से गरजता हुआ उनके पास आया और उसने उन पर काले इस्पात की बनी अपनी गदा से प्रहार किया।
 
श्लोक 27:  प्रद्युम्न के सारथी दारुक-पुत्र ने सोचा कि उसके वीर स्वामी की छाती गदा से क्षत-विक्षत हो चुकी है, अत: उसने अपने धार्मिक कर्तव्य को भलीभाँति जानते हुए प्रद्युम्न को युद्धभूमि से हटा लिया।
 
श्लोक 28:  तुरन्त ही होश आने पर भगवान् कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न ने अपने सारथी से कहा, “हे सारथी, यह निन्दनीय है कि तुम मुझे युद्धक्षेत्र से हटा लाये हो।”
 
श्लोक 29:  “मेरे अतिरिक्त यदुवंश के जन्मे किसी ने कभी युद्धभूमि का परित्याग नहीं किया। अब तो मेरी ख्याति एक सारथी द्वारा कलंकित हो चुकी है, जो एक नपुंसक की तरह सोचता है।”
 
श्लोक 30:  मैं अपने पिता-द्वय राम तथा केशव से क्या कहूँगा, जब युद्ध से यों ही भाग कर मैं उनके पास वापस जाऊँगा? मैं उनसे क्या कह पाऊँगा, जो मेरी प्रतिष्ठा के अनुरूप हो?
 
श्लोक 31:  “निश्चय ही मेरी भाभियाँ मुझ पर हँसेंगी और कहेंगी, “हे वीर, हमें यह तो बताओ कि किस तरह इस संसार में तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हें युद्ध में ऐसा कायर बना दिया।”
 
श्लोक 32:  सारथी ने उत्तर दिया : हे दीर्घायु, मैंने अपने निर्दिष्ट कर्तव्य को अच्छी तरह जानते हुए ही ऐसा किया है। हे प्रभु, सारथी को चाहिए कि जब उसका स्वामी संकट में हो, तो उसकी रक्षा करे और स्वामी को भी चाहिए कि वह अपने सारथी की रक्षा करे।
 
श्लोक 33:  इस नियम को मन में रखते हुए मैंने आपको युद्धस्थल से हटा लिया, क्योंकि आप अपने शत्रु की गदा से आहत होकर बेहोश हो गये थे और मैंने सोचा कि आप बुरी तरह से घायल हैं।
 
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