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श्लोक |
रथं प्रापय मे सूत शाल्वस्यान्तिकमाशु वै ।
सम्भ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम् ॥ १० ॥ |
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शब्दार्थ |
रथम्—रथ को; प्रापय—लाओ; मे—मेरे; सूत—हे सारथी; शाल्वस्य—शाल्व के; अन्तिकम्—निकट; आशु—तेजी से; वै— निस्सन्देह; सम्भ्रम:—मोह; ते—तुम्हारे द्वारा; न कर्तव्य:—अनुभव नहीं होना चाहिए; माया-वी—महान् जादूगर; सौभ-राट्— सौभ का स्वामी; अयम्—यह ।. |
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अनुवाद |
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[भगवान् कृष्ण ने कहा] : हे सारथी, शीघ्र ही मेरा रथ शाल्व के निकट ले चलो। यह सौभ-पति शक्तिशाली जादूगर है, तुम उससे विमोहित नहीं होना। |
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