एवं वदन्ति राजर्षे ऋषय: के च नान्विता: ।
यत् स्ववाचो विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत ॥ ३० ॥
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; वदन्ति—कहते हैं; राज-ऋषे—हे राजर्षि (परीक्षित); ऋषय:—ऋषिगण; के च—कुछ; न—नहीं; अन्विता:—सही ढंग से तर्क करते हुए; यत्—चूँकि; स्व—अपने; वाच:—शब्द; विरुध्येत—विपरीत हो जाते हैं; नूनम्— निश्चय ही; ते—वे; न स्मरन्ति—स्मरण नहीं करते; उत—निस्सन्देह ।.
अनुवाद
हे राजर्षि, यह विवरण कुछ ऋषियों द्वारा दिया हुआ है, किन्तु जो इस तरह अतार्किक ढंग से बोलते हैं, वे अपने ही पूर्ववर्ती कथनों को भुला कर अपनी ही बात काटते हैं।
तात्पर्य
यदि कोई यह सोचता है कि कृष्ण सचमुच ही शाल्व के जादू से मोहग्रस्त हो गये और सामान्य जन की तरह शोक कर रहे थे, तो ऐसा मत अतार्किक एवं विपरीतार्थी
है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, दिव्य हैं और परम पूर्ण हैं। इसकी और अधिक व्याख्या अगले श्लोकों में है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥