न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत् ।
अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च ॥ २८ ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; तत्—उसके; वाक्यम्—शब्दों को; जगृहतु:—दोनों ने स्वीकार किया; बद्ध—स्थिर; वैरौ—शत्रुता; नृप—हे राजा (परीक्षित); अर्थ-वत्—विवेकशील; अनुस्मरन्तौ—स्मरण रखते हुए; अन्योन्यम्—एक-दूसरे को; दुरुक्तम्—कटु वचन; दुष्कृतानि—दुष्कर्म; च—भी ।.
अनुवाद
[शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा] : हे राजन्, तर्कपूर्ण होने पर भी बलरामजी के अनुरोध को उन दोनों ने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनकी पारस्परिक शत्रुता कट्टर थी। वे दोनों ही एक-दूसरे पर किये गये अपमानों तथा आघातों को निरन्तर स्मरण करते आ रहे थे।
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